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प्रथम स्तवक ]
भाषानुवादसहिता www
केचित्परोक्षमेव ज्ञानं शब्दादुदेति पश्चात्तु । तस्मान्मननादियुतादपरोक्षज्ञानमत्र नियम इति ॥ ८॥ साक्षात्कारे करणं विमलं मन एव न तु शब्दः । शब्दः परोक्षमात्रे तस्मात्तत्रैव नियम इत्यपरे ॥ ९॥
wwwwwwwwwww प्रथमं शब्दान्निर्विचिकित्सं परोक्षज्ञानमेवोदेति पश्चान्मननादिसहितात्तस्मादेव शब्दादपरोक्षज्ञानम् , भावनाप्रचयस्य बाह्यार्थासमर्थे विधुरचित्ते कामिनीसाक्षास्कारसामर्थ्याधायकत्वक्लप्तेः । एवं च परोक्षज्ञान एवं प्रागुक्तरीत्या पाक्षिकत्वप्राप्तौ नियमविधिरिति मतान्तरमाह- केचिदिति ॥८॥
__ अनाऽपरोक्षज्ञाने 'मनसैवानुदष्टव्यम्' इत्यादिश्रुतेः शास्त्राचार्योपदेशसंस्कृतं मन एव साक्षात्कारे करणम्, न तु शब्दः । शब्दस्तु परोक्षमात्रे । तस्मात्तत्रैव पूर्ववन्नियमविधिरिति मतान्तरमाह-साक्षादिति ॥९॥
शब्दसे पहले तो निःसंशय परोक्षज्ञान ही होता है; पीछे मनन आदि सहकारी कारणोंके बलसे उसी शब्दसे अपरोक्ष ज्ञान होता है, क्योंकि बाह्य अर्थके ग्रहणमें असमर्थ विधुरचित्तमें भावनाके आधिक्यसे कामिनीसाक्षात्कारकी सामर्थ्य देखी जाती है । इसलिए परोक्ष ज्ञानमें ही पूर्वोक्त रीतिसे पाक्षिक प्राप्ति होनेसे यह नियमविधि है, इस प्रकार मतान्तर कहते हैं- केचित्' इत्यादिसे ।
कई एक लोग कहते हैं--पहले शब्दसे परोक्ष ज्ञान ही होता है, पीछे जब उन शब्दोंको मनन आदि सहकारी कारणोंका साथ मिलता है तब उन्हीं शब्दोंसे अपरोक्ष ज्ञान होता है, अतः यह नियमविधि है ॥ ८॥
इस अपरोक्ष ज्ञानमें 'मनसैवानुद्रष्टव्यम्' (मनसे ही अनुदर्शन करना चाहिए ) इत्यादि श्रुतिसे आचार्यकृत शास्त्रोपदेशसे संस्कृत केवल मन ही साक्षात्कारमें कारण है, शब्द नहीं है । शब्द तो केवल परोक्ष ज्ञानमें कारण है । इससे उसीमें पूर्ववत् नियमविधि माननी चाहिए, ऐसा मतान्तर कहते हैं-साक्षाकारे' इत्यादिसे।
आत्मसाक्षात्कारमें असाधारण कारण केवल निर्मल मन ही है, न कि शब्द; शब्द तो परोक्षमात्रमें ही कारण होता है, अतः उसीमें नियमविधि है, ऐसा अन्य वेदान्तैकदेशी मानते हैं ॥ ९॥
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