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सिद्धान्तकल्पवल्ली
[ विधिवाद
वेदान्तश्रवणमिदं नाप्राप्तं किन्तु पक्षतः प्राप्तम् । नियमविधिरेष तस्मादित्याहुविवरणाचार्याः ॥ ७ ॥
ननु वेदान्तश्रवणं नित्यापरोक्षब्रह्मसाक्षात्कारहेतुतया नाऽप्राप्तम् , अपरोक्षवस्तुविषयप्रमाणस्य साक्षात्कारहेतुत्वेन, विचारस्य विचार्यनिर्णयहेतुत्वेन च विचारितवेदान्तशब्दज्ञानरूपस्य श्रवणस्य तद्धेतुत्वप्राः । न चोकव्यभिचारः, सहकारिविरहेणाऽन्वयव्यभिचारस्याऽदोषत्वात् , जन्मान्तरश्रवणात् फलसंभवेन व्यतिरेकव्यभिचाराभावाच । अतो नाऽपूर्वविधिरिति अपरितोषान्मतान्तरमाहवेदान्तेति । नियमविधिरेवाऽयम् , तद्विध्यभावे मनोगोचरे स्वस्मिन् श्रुतिबोधितसूक्ष्मतमविशेषावधारणाय मनस एव सप्रणिधानं व्यापारे तच्छास्त्रश्रवणेऽपि मेधाविनो गुरुनिरपेक्षवेदान्तविचारे मन्दव्युत्पन्नस्य भाषाप्रबन्धश्रवणे प्रवृत्तिप्रसक्तिरस्तीति साधनत्वस्य प्रान्तिप्राप्तेमनःप्रणिधानादिभिर्वधीनाद्वितीयवस्तुपरवेदान्तश्रवणं पक्षतः प्राप्तमित्यतो नियमविधिरित्यर्थः ॥ ७ ॥
शङ्का-वेदान्तश्रवण नित्य अपरोक्ष ब्रह्मके साक्षात्कारका हेतु है, ऐसा अप्राप्त नहीं है; क्योंकि अपरोक्ष वस्तुको विषय करनेवाला प्रमाण साक्षात्कारका हेतु होता है और विचारितवेदान्तशब्दज्ञानरूप श्रवण विचार्य वस्तुके निर्णयका हेतु है, अतः उसमें अर्थात् साक्षात्कारहेतुत्व प्राप्त होता है। और ऊपर जो व्यभिचार दोष कहा गया है, वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि सहकारी कारणकी अनुपस्थितिसे अन्वयव्यभिचार दोष नहीं होता और जन्मान्तरकृत श्रवणसे फलका संभव होनेसे व्यतिरेकव्यभिचार दोष भी नहीं हो सकता। इससे यह 'द्रष्टव्यः' इत्यादि अपूर्वविधि नहीं मानी जा सकती, इस प्रकार अपरितोषसे मतान्तर बतलाते हैं-'वेदान्त' इत्यादि। ___यह 'द्रष्टव्यः श्रोतव्यः' इत्यादि नियमविधि ही है । यदि यह नियमविधि न मानी जाय, तो अपने मनोगोचर स्वरूपमें श्रुति द्वारा संबोधित सूक्ष्मतम विशेषके अव. धारणके लिए मनके सप्रणिधान व्यापारमें, उस शास्त्रका श्रवण करनेपर भी मेधावी (ग्रहण धारण-शक्तिशाली) पुरुषकी गुरुकी अपेक्षाके बिना ही वेदान्तविचारमें और मन्दमति व्युत्पत्तिहीन जनकी भाषाप्रबन्धके श्रवणमें प्रवृत्ति प्राप्त होगी, इससे इनमें भी भ्रांतिसे साधनत्वबुद्धिका होना संभव है, अतः मनःप्रणिधान आदि द्वारा गुरुके अधीन अद्वितीय वस्तुपरक वेदान्तवाक्योंका श्रवण पक्षमें प्राप्त है, अतः यह 'श्रोतव्यः' इत्यादि नियमविधि है ॥ ७ ॥
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