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प्रथम स्तवक ]
भाषानुवादसहिता
अत्र प्रकटार्थकृतः श्रवणं ब्रह्मापरोक्षहेतुतया । अप्राप्तमतो विधिरयमपूर्व एवेति मन्यन्ते ॥ ६॥
'इमामगृभ्णन् रशनामृतस्य' इति मन्त्रस्य 'इत्यश्वाभिधानीमादत्ते' इति गर्दभरशनाग्रहणस्य व्यावृत्तिमात्रफलको विधिः; यथा वा 'पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः' इति च । एवं त्रिप्रकारेषु तेषु श्रवणविधिः किंप्रकार आश्रयणीय इत्यर्थः ॥ ५॥ __ वेदान्तश्रवणं ब्रह्मसाक्षात्कारहेतुतया कुत्राऽप्यप्राप्त प्रमाणान्तरेण । कृतश्रवणस्याऽपि कस्यचित् तदनुदयेनाऽकृतश्रवणस्याऽपि वामदेवादेस्तदुदयेन चाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यभिचारदर्शनात्, श्रवणमात्रं श्रोतव्यार्थसाक्षात्कारहेतुरिति सामान्यनियमस्य कर्मकाण्डवणे व्यभिचाराच्च । अतोऽप्राप्तत्वादयमपूर्वविधिरेवेति मतेनोत्तरमाह-अत्रेति ॥६॥ किया जाता है, वहाँ 'इमामगृभ्णन रशनामृतस्य' इस मन्त्रका रशनाग्रहणरूप अर्थके समान होनेसे गर्दभरशनाग्रहणमें भी विनियोग प्राप्त होता है, उसकी 'इत्यश्वाभिधानीमादत्ते' (अश्वसम्बन्धिनी रज्जूको लेता है) इस वाक्यसे व्यावृत्ति होती है, अतएव गर्दभरशनाग्रहणकी व्यावृत्ति करना इतना ही फल होनेसे यह परिसंख्याविधि है, अन्यत्र 'पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः' इत्यादि वाक्योंमें भी 'परिगणित शशकादि पाँच पंचनख प्राणियोंसे भिन्न पंचनख प्राणी भक्ष्य नहीं हैं' ऐसा अर्थ फलित होता है, 'शशकादिका भक्षण करें' ऐसा विधान फलित नहीं होता अर्थात् निवृत्तिमात्रफलक परिसंख्याविधि कहलाती है-इन तीनों प्रकारों में से 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' यह किस प्रकारकी विधि है ? अर्थात् उक्त तीन प्रकारों में से यहाँ किस प्रकारका आश्रयण करना चाहिये ॥५॥
वेदान्त-श्रवण ब्रह्मसाक्षात्कारका हेतु है, ऐसा कहीं भी प्रमाणान्तरसे प्राप्त नहीं है । और वेदान्तश्रवण करनेसे भी किसी किसी व्यक्तिको ब्रह्मसाक्षात्कारका नहीं होता और जिन्होंने वेदान्तश्रवण नहीं किया, ऐसे वामदेवादिको ब्रह्मसाक्षात्कार हुआ है। इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक दोनों तरहका व्यभिचार देखने में आता है और श्रोतव्य अर्थके साक्षात्कार के प्रति श्रवणमात्र हेतु है-इस सामान्य नियमका कर्मकाण्डके श्रवणमें व्यभिचार देखते हैं, अतः आत्माका साक्षात्कार अप्राप्त होनेसे यह 'श्रोतव्यः' इत्यादि अपूर्वविधि है, इस मतसे उत्तर कहते हैं'अत्र' इत्यादिसे।
प्रकटार्थकार यों कहते हैं कि श्रवण ब्रह्मके अपरोक्ष ज्ञानके प्रति हेतु है, ऐसा प्रमाणान्तरसे प्राप्त नहीं हैं, इसलिए 'श्रोतव्यः' इसको अपूर्वविधि मानना चाहिये ॥६॥
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