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योगसुधाकर नामक योगसूत्रवृत्ति - योगिराजने योगाभ्यास में निरत लोगोंके उपकारार्थ योगसूत्रोंपर अतिमनोहर वृत्तिका निर्माण कर ध्रुव, कूर्म आदि नाडियों का ज्ञान, समाधिका स्वरूप और यम-नियम आदिके अभ्यास से अन्तःकरण के निग्रहकी रीतिका विशद प्रतिपादन कर आरुरुक्षुओंपर महती कृपा की है ।
आत्मविद्याविलास — इसमें परमात्मसाक्षात्कारसे आनन्दसागर में निमग्न परमहंसों की विभूतिको प्राप्त करनेकी इच्छावाले योगिराजने अपनी आध्यात्मिक मानस वृत्तिका बासठ (६२) आर्याओं द्वारा वर्णन किया है ।
सुनने में आता है कि योगिराजने इनसे अतिरिक्त बारह उपनिषदोंपर दीपिका टीकाकी भी रचना की है। पर वह अभी तक हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुई है।
कुछ लोग अद्वैतरसमञ्जरीको भी इन्हींकी कृति मानते हैं, पर यह कथन प्रामादिक ही प्रतीत होता है । अद्वैतरसमञ्जरीके अन्त में स्पष्ट ही लिखा है कि'नल्ला सुधी निबद्धेयमद्वैतरसमञ्जरी । अन्तर्मुखैर्विपश्चिभिरादरेणाऽनुगृह्यताम् ॥'
इससे निश्चित है कि उसके रचयिता नल्लाकवि थे | अद्वैतरसमञ्जरीपर ग्रन्थकारने स्वयं परिमल नामक टीका लिखी है । उसके आदिमें श्रीगणेशजी की वन्दना कर वे लिखते हैं
'भुवनाद्भुतानुभावं परमशिवेन्द्राभिधं भजामि गुरुम् । यदपाङ्गव्यापारः पुंसां संसारतारको भवति ॥'
इस पद्यसे अपने गुरु परमशिवेन्द्रसरस्वतीको प्रणाम कर निम्न पद्यसे उन्होंने सदाशिवेन्द्रसरस्वतीकी भी वन्दना की है
वेदान्तसूत्रवृत्तिप्रणयन सुव्यक्तनै जपाण्डित्यम् । वन्देऽवधूतमार्ग प्रवर्तकं श्रीसदाशिवब्रह्म ॥
इससे निश्चित है कि अद्वैतरसमञ्जरीकार परमशिवेन्द्र सरस्वती के शिष्य थे । गुरुके सर्वप्रधान शिष्य ब्रह्मनिष्ठ श्रीसदाशिवेन्द्रपर भी उनकी असाधारण भक्ति रही, इसीलिए ग्रन्थकी समाप्ति में 'श्रीसदाशिवेन्द्रपूज्यपादानुग्रहभाजनस्य नल्लाकवेः कृतिषु स्वकृताद्वैतरसमञ्जरीव्याख्या परिमलाख्या सम्पूर्णा' लिखा है ।
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