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अमरावती और काबेरी नामक दिव्य नदियोंके निकटवर्ती वनप्रदेशोंमें रहते हुए उन नदियोंके तटोंपर वाङ्मनसागोचर परमब्रह्मका ध्यान करते हुए सुखपूर्वक दिन बिताने लगे। शुन्यचित हो जड़की नाई, बहिरेकी नाई, अन्धेकी नाई, भूताविष्टकी नाई परमात्मामें हृदय लगाकर इधर उधर घूमते थे, अतः उन्हें लोग पागल समझते थे। अपने शिष्यकी ऐसी दशा सुनकर अपने हृदयका वैसा परिपाक न देखकर परमशिवेन्द्रयोगीको खेद हुआ, ऐसा निम्ननिर्दिष्ट पदसे प्रतीत होता हैउन्मत्तवत्सञ्चरतीह शिष्य
स्तवेति लोकस्य वचांसि शृण्वन् । खिद्यन्नुवाचाऽस्य गुरुः पुराऽहो
ह्युन्मत्तता मे नहि तादृशीति * ॥ सदाशिवेन्द्र देहाभिमानरहित वर्षा, घाम आदि खेदको कुछ न गिनकर केवल आत्माराम और समाधिस्थित रहते थे। कभी वनोंमें प्रविष्ट होकर बहुत दिनों तक किसीके दृष्टिगोचर नहीं होते थे और कभी कावेरी तटपर शिलाकी नाई निश्चल होकर समाधि करते थे। एक समयकी घटना है कि सदाशिव योगीन्द्र कोडुमुडी नगरके समीप कावेरी नदीके बालूपर समाधिस्थ थे, सहसा ऐसी बाढ़ आई कि उसने बड़े-बड़े वृक्षोंको उखाड़ कर फेक दिया । वह नावोंको कभी आकाशमें उछालती और कभी नदीके निम्नस्तरमें पटक देती थी। नगर और गांवोंको उसने जलमग्न कर दिया था। वह प्रलयकारिणी बाढ़ योगिराजको दूर बहा ले गई। वह जलम्रमियोंमें कभी तिनकेके समान उन्हें घुमाती थी एवं कभी नीचे नदीके तीरमें बालू में पटक देती थी । इस प्रकार बाद द्वारा बहाये जा रहे योगिराजकी रक्षा करनेमें असमर्थ तटवर्ती लोग महो योगिराजके ऊपर यह बड़ी आपत्ति आ पड़ी, क्या करें ! यह प्रलयकालकी-सी बाढ़ महा अनुचित कर रही है। इस बाढ़में पड़कर बचना कठिन है, यो खेदपूर्वक कहते हुए अपने अपने घरोंको चले गये। तीन महीनेके बाद जब कि कावेरी क्रमशः शान्त हो चुकी थी, उसके तटोंमें बालू ही बालू दिखाई देने लगा था और उसका जल वेणीकी नाई सूक्ष्म हो गया था। ग्रामीण लोग स्नान आदिकी सुविधाके लिए नदीके मध्यमें बड़े बड़े गड़हे खोदने लगे। किसी एक ग्रामीणके
* आपके शिष्य उन्मत्तकी नाई घूमते हैं, ऐसे लोगोंके वचन सुनकर उनके गुरु परमशिवेन्द्रसरस्वतीने 'ऐसी उन्मत्तता मुझे नहीं हुई' यह खेदपूर्वक कहा ।
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