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मोहित कर लज्जित कर डालते थे । पण्डित लोग उनके प्रश्नोंका उत्तर नहीं दे सकते थे । पण्डितों के लिए वह परिभव असह्य हो जाता था । उन्होंने गुरुजी - से निवेदन किया कि यह सदाशिवेन्द्र बड़ा दुर्विनीत है । हम लोगोंसे अनेक प्रश्न कर हमें लज्जित करता रहता है । इससे परमशिवेन्द्रसरस्वतीको कुछ खेद हुआ । उन्होंने कहा – सदाशिव, तुम्हारी इस दुर्निरोध वाणीका संयम कब होगा ? तुरन्त अपने अपराधको जानकर शिष्य सदाशिव अपनी जिह्वा के निरोधके लिए तत्पर हो गये और मरणपर्यन्त मौनी रहने का निश्चय कर उन्होंने आचार्यको दण्डवत् प्रणाम कर अपराधके लिए क्षमा मांगी । तदुपरान्त आचार्य से अनुज्ञा पाकर और मौनी योगी बनकर काम, क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय पानेके लिए वे चल दिये । वृक्ष के नीचे बसेरा लेते तथा हथेली में भोजन करते हुए सुखपूर्वक समययापन करने लगे ।
किसी समयकी बात है कि देहाभिमानशून्य और शीत - घामके खेदको नगण्य समझनेवाले योगिराज खेतकी मेढ़पर सो रहे थे । संयमीन्द्रको मेढ़पर सिर रखकर सोया देखकर कुछ कृषकोंने कहा – अहो सम्पूर्ण विषयों में आसक्तिका त्याग करके भी ये योगिराज कुछ ऊँची खेतकी मेढ़को तकिया बनाये हुए हैं, यों कहते हुए वे कहीं चले गये । दूसरे दिन जब वे उसी मार्गसे लौटे, तो तकियेके बिना ही खेतमें सिर रखकर सो रहे सदाशिवेन्द्रको देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । 'ये योगिराज सम्पूर्ण विषयोंमें आसक्तिका त्याग कर भी हम सरीखे पामरों द्वारा की गई प्रशंसा तथा निन्दासे पराङ्मुख नहीं हैं' यह कहते हुए वे अपने अपने घर चले गये ।
यह समाचार परम्परासे श्रीवेङ्कटेशके कानोंतक पहुँचा । किंवदन्ती है कि उन्होंने भी भली भाँति विचार कर श्रेष्ठ संयमियों का भी प्रकृति से सम्बन्ध दुर्निवार है, तृणतुलिताखिलजगतां करतलकलिताखिलरहस्यानाम् । श्लाघावारवधूटी घटदासत्वं सुदुर्निरसम् * ॥
यो शोक किया ।
इस प्रकारकी अपनी न्यूनताको, जो बुद्धिकी परिपक्कताकी विनाशिनी थी, क्रमशः दूर कर सदाशिवेन्द्रसरस्वती योगविद्या की चरम सीमाको प्राप्त हो गये ।
* जिन महात्माओंने सम्पूर्ण जगत् को तृण समझ रक्खा है और जिनकी हथेली में सम्पूर्ण रहस्य विद्यमान है, उनकी भी प्रशंसारूपी वेश्याकी दासता नहीं छूटती है अर्थात् वे भी प्रशंसाआकाङ्क्षा करते हैं ।
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