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कर दिया। 'यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत्' (जभी वैराग्य हो तभी संन्यास ले ले) इस न्यायसे शीघ्र ही गृहाभिमानका त्यागकर घरसे निकलकर योगविद्यामें पारङ्गत आचार्यको खोजते हुएं वे कावेरी नदीके तटवर्ती पुण्यक्षेत्रों में बहुत दिनों तक घूमते रहे । संसारमागरमें डूबे हुए विविध दुःखोंसे पीडित असंख्य प्राणियोंके लिए इनके हृदयमें बड़ी तीव्र दया उत्पन्न हो चुकी थी। उन लोगोंके शारीरिक और मानसिक कष्ट, जरा, मरण आदि क्लेशरूप उपद्रवोंको देखकर उनके नेत्रोंसे बार-बार अश्रुधाराएँ उमड़ पड़ती थीं । वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद सबपर दयाई समहष्टि रखते और जो भी जो कुछ भोजन दे जाता, उससे अपनी देहयात्रा कर लेते थे। सूखे पत्तों और गलियोंमें फेंके उच्छिष्ट अन्न तकको रुचिपूर्वक ग्रहणकर सुखसे विचरते थे। योगिराज महात्मा सदाशिवेन्द्रको योगी और महात्मा न जानकर साधारण लोग 'यह उन्मत्त है, मूढ़ है' यो उनका उपहास किया करते थे।
इस प्रकार आचार्यकी खोजमें घूम रहे सदाशिवेन्द्रकी कहीं परमशिवेन्द्र नामक योगिराज आचार्यसे भेंट हो गई। योगिराज परमशिवेन्द्रने उनका वास्तविक रूप जानकर बड़े प्रेमसे उन्हें योगविद्याका रहस्य सिखलाया। ऐसी किंवदन्ती है कि जब वे योगशिक्षा पा रहे थे, उसी समय उनके मुखकमलसे ब्रह्मज्ञानरूपी सुधारससे सराबोर गान धारावाहिकरूपसे निकलते थे। यम, नियम
और ध्यानके अभ्याससे अन्तःकरणको अपने वशमें कर योगियों द्वारा उपदिष्ट योगमार्गमें असाधारण कौशलसे चल रहे योगिराज सदाशिवेन्द्र योगविचारसे हृदयकमलको विकसित कर सिद्ध हो गये । परमज्योतिका साक्षात्कार कर वाणी और मनके अगोचर आनन्दका अनुभव करने लगे। यो उनको अतीत अनेक वर्ष क्षणकी तरह बीतते हुए ज्ञात नहीं हुए।
गुरुके उपदेश और प्राक्तन संस्कारसे योगविद्यामें भली भांति निष्णात होकर परमानन्दसन्दोहपूर्ण वे श्रेष्ठतम संन्यासी हो गये। परमात्माके साक्षात्कारसे परम आनन्दको प्राप्त अन्य लोगों द्वारा की गई प्रशंसा और निन्दा मादिसे विमुख एवं परमब्रह्मनिष्ठ परमहंसोंकी विभूतिको प्राप्त करनेके इच्छुक सदाशिवेन्द्रसरस्वतीने अपनी वैसी मानसिक वृत्ति आत्मविद्या-विलास नामक काव्यमें ६२ आर्याओं द्वारा विशदरूपसे दर्शाई है।
जब सदाशिवेन्द्र योगी योगविद्यागुरु परमशिवेन्द्रसरस्वतीके निकट रहते थे, तब गुरुवरके दर्शनके लिए आये हुए पण्डितोंको वे सैकड़ों प्रभों द्वारा
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