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६६. श्वेताम्बर तेरापंथ-मत समीक्षा । सररररर
कपडे रंगनेका कारण, जो यति शिथिल हुए थे, उनसे भेद दिखलानेका ही है । और वह भी शास्त्रयुक्त ही है। न कि मनःकल्पित । देखो, आप लोग (तेरापंथी) स्थानकवासिओंसे अलग हुए, तब स्थानकवासिसे विलक्षण मुहपति बांधनी शुरुकी। और वह भी मनःकल्पित,, नकि शास्त्र प्रमाणसे । तिसपर भी झूटेको झूटा समझते नहीं हो । और जिन्होंने सकारण, सशास्त्र, नायकोंकी सम्मतिसे कपडे रंगनेका कार्य किया है, उसमें दोष देखते हो । यही तुम्हारा जाति स्वभाव दिखाई दे रहा है।
प्रश्न--२१ श्रीजिनेवर देवने दशमिकालकरा सातमा अध्येन गाथा ४७ मी मे कयोके साधु होकर असंयतीको आवजाव उभोरे बेस सुकाम कर इत्यादिक छ बोल केणा नहीं तो फेर समेगीजी साधुजी ग्रहस्ती पर बोज कीस शास्त्रकी रूसे देते है।
उत्तर--श्रीदशकालिकसूत्र के सातवे अध्ययनकी ४७ वी.गाथामें जो बात कही है, वह सर्वथा मान्य है, फिर चाहे तेरापंथी हो, स्थानकवासी हो या संवेगीसाधु हो । जो साधु, गृहस्थके शिरपर बोझा देता है, वह साधुकी क्रिया में दोष लगाता है । संवेगी साधु, अपने उपकरण गृहस्थके शिरपर देते नहीं है । और कदाचित् कोई शिथिल साधु देता हो, तो इससे सबके शिरपर दोष लगाना, द्वेषका ही कारण है। देखिये, जो रुपिया जितना घिसा हुआ होता है, उसका उतना ही वटाव लगता है। परन्तु वह रुपया सवथा तांबेका गिना जाता नहीं है। इसी तरह जिसमें जितनी न्यूनता होती है, उसमें उतनी ही न्यूनता गिनी जाती है कंचन ।
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