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१२ श्वेताम्मर तेरापंथ-मत समीक्षा। हूँ। यहाँपर चाहे कोइ भी चीज लेजाती होगी, परन्तु उसको भात ही कहेगी । उडदका चावल होता है, ऐसा किसी जगह जाननेमें नहीं आया। तब जैसे जवका सत्यु ( साथुआ) होता है, वैसे उडद वगैरहका सत्थु इत्यादि समझ लेना । मगध देशमें सत्युका प्रचार बहुत था । अभी भी है । नाना प्रकारका सत्थु मिलता है । मैं उस देशमें विचरा हूँ। मुझे इस बातका जाति अनुभव है । बहुत दिनोंका सत्थु देनेमें वासीका दोष नहीं है आचारांगसूत्रमें अनेक प्रकारके चूर्ण सत्थु इत्यादिका वर्णन
हमें बहा आश्चर्य होता है कि-आप लोग टीकाको मानते नहीं है, तिसपर भी जहाँ तुम्हारे मतलबकी बात आती है, वहाँ तो फोरन टीकाका शरण लेते हो, परन्तु टीकाका रहस्य भी, सिवाय गुरुके नहीं मिल सकता। वासीका अर्थ पर्युषित भक्त करनेसे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होनेवाला नहीं है। क्यों कि-पर्युषित दो प्रकारके होते हैं । भक्ष्य तथा अभक्ष्य । 'पर्युः षित' शद्धका अर्थ 'रातका रहा हुवा भक्त' ऐसा होता है। उसमें ऐसा नहीं है कि-स्नेह सहित या स्नेह रहित । अत एव भक्ष्य अभक्ष्य दोनोंका ग्रहण होता है । इनमेंसे जो भक्ष्य चीजें होती है, वही भगवान् तथा भगवान्के अणगार-साधु लेते हैं । अभक्ष्य चीजें लेते नहीं है । सूत्रमें ऐसेभी पाठ हैं किचलितरस, जिसमें लिलण-फूलण आगई हो तथा रूप-रस-गंध स्पर्श बदल गया हो, वैसा आहार लेना नहीं । महानुभाव ! भाप लोगोंको चलित रसका ज्ञान दूरसे होनेवाला नहीं है!
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