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श्वेताम्बर तेरापंथ-मत समीक्षा | ५९
“भो जं णं तुब्भे एवमाचक्खह, एवं भा सह, एवं पण्णवह, एवं परूबद, - सव्वे पाणा सव्वे भूआ, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, हंतव्वा, अज्जावेयव्वा, परिया वेअव्वा, परिघाएअव्वा, किलामेअव्वा, उ हवेअव्वा, एत्थ वि जाणह नत्येत्य दोसो अणायरियवयणमेअं.
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वयं पुरा एवमाइक्खामो, एवं भासामो, एवं परूवेमो, एवं पण्णवेमो, सव्वे पाणा, सव्वे भूआ सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावतव्वा, न परियावेअव्वा, न परिघाएअव्वा, न किला मे अव्वा, न उद्दवेअव्वा, एत्थवि जागढ़ नत्थेत्थ दासो आयरियवयणमेअं. "
ऊपर जो दो पाठ दिये गये हैं, उसमें पहिले पाठमें जैनेतरोंका वचन है, दुसरे पाठयें जैनमुनियोंका वचन है, पहिले पाठमें यदि धर्मका अध्याहार [ ऊपरसे धर्म ] लिया भी जाय, तो भी वह पाखंड ओंका ही धर्म लेना । परन्तु समकितवंत जीवोंका नहीं । दूसरे पाठ में धर्म लेनेकी आवश्यकता ही नहीं है । इसके सिवाय इसी सूत्रके प्रथम श्रुतस्कंधर्के २२४ वें पृष्ठमें ' जो आस्रव व परिस्रव तथा ' ' जो परिश्रव वह आस्रव ' कहा है । परिश्रव कर्म निर्जराका नाम है । वहाँ समकितवंतका आस्रव, निर्जरारूप होता है। अज्ञानीका संवर बह
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