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श्वेताम्बर तेरापथं मत समीक्षा |
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बसे भगवान्ने हिंसा करवाई एसा ठहरेगा। मुनि चातुर्मास रहे और यदि अप्रीति - अशिवादि कारण हो जाय तो चातुमसमें भी विहार करे खुद प्रभु वीर ने भी चातुर्मास में विहार किया है । उस तरह ऐसे कारणोंमें वर्तमान समय में भी विहार करते हैं । तो उसके दोष के भागी तुम्हारे हिसावसे उपदेश देनेवाले तीर्थकर - गणधरादि ही होंगे ।
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ऐसे २ कई स्थानों में भविष्यके बड़े लाभ के लिये प्रभु तथा गणधरोने आदेश - उपदेश किया है । परन्तु महानुभावो ! पूर्वोक्त कारणोंमें स्वरूप हिंसा है, अनुबन्ध हिंसा होती है, वहाँ ही उत्तरकालमें दुःख होता है, दशत्रैकालिकसूत्रमें तथा सूयगडांगसूत्रमें अहिंसाधर्मकी प्ररूपणाकी हुई है । वह सर्वथा सबको मान्य है, परन्तु उसको यथार्थ स्वरूपको नहीं समझ करके एकान्त पक्षको स्वीकार करनेवाले जैनदर्शन से बाहर हैं। क्यों कि मुनिराजोंने, अरिहंत-सिद्ध-साधु- देव तथा आमाकी साक्षीसे पंचमहाव्रत स्वीकार करने के समय मन-वचनकायासे, नव प्रकार के जीवको हं नहीं, हणावुं नहीं, तथा हणे उसको अच्छा न जानुं, ऐसे ८१ भांगेसे 'प्राणातिपाती - रमण' व्रत लिया है तथापि आहार - निहार-विहार - व्याख्यान धर्म चर्चा, गुरुभक्ति तथा देवभक्ति वगैरह क्रियाओमें हिंसा होती है । परन्तु इन कार्यों में अत्युत्तम निर्जरा होनेसे उसको हिंसा मानी नहीं है । यदि हिंसा मानली जाय तो ८१ भांगेमें दुषण आने से मुनिओं को हजारो कष्टक्रिया करनेपर भी दुर्गतिमें जानेका समय आवे ।
प्रश्न - १४ - जिन प्रतिमा श्रीजिनसारसी परूपते हो सो बत्तीस सासत्रमें कांहीका हो तो पाठ वतलायें -
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