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४४ वेताम्बर तेरापंथ-पत समीक्षा । स्सेणं सद्धिं संपुरिबुडे जेणेव पुंडरीए पव्वये तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पुंडरीअं पव्वयं सणिअं सणिअं दुरुहति"
अर्थात्-तब हजार अनगारोंसे परिवृत हुए थावच्चापुत्र, जहाँ पुंडरीक पर्वत है, वहाँ आते हैं । आ करके उस पुंडरीक पर्वत पर धीरे धीरे चढते हैं।
अब यह विचारनेकी बात है कि-यदि वह तीर्थका स्थान न होता तो दूसरे अनेक स्थानोंको छोड करके थावचापुत्र क्यों वहाँ जाते ? । महानुभाव ! थावच्चा अणगार जैसे पवित्र, महात्मा, तद्भवमुक्तिगामी पुरुष, जो कि ज्ञानदर्शन-चारित्र वगैरहरूपी यात्राको मानते हैं, उन्होंने भी पुंडरीक पर्वत पर जा करके मुक्तिका लाभ लिया। अन्यत्र नहीं । शत्रुजयका ही पुंडरीक पर्वत नाम है । वह नाम, ऋषभदेव स्वामीके पुंडरीक गणधर पांच क्रोड मुनिके साथ चैत्रीपूर्णिमाके दिन मोक्ष गये, तबसे पडा है । यह बात गुरुकुलमें रहनेवाले लोगही जान सकते हैं । परन्तु तुम्हारे जैसे स्वयंभू लोग कैसे जान सकते हैं ? । उपमान-उपमेयके नियमसे भी ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपी यात्रासे अन्य यात्रा सिद्ध होती है।
प्रश्न-८ उत्राधेनरा बारमा अध्येनमें ब्रह्मचरियरूपी तीरथ वतायो और आप श्रेतुर्जा आदी तीर्थ परूपते हो, सो कीस शस्त्रकी रूसे सो बत्रीस श्रुत्रमें पाठ बतलावो
उत्तर-उत्तराध्ययन सूत्रके पृष्ठ ३७७ में १२ वे अध्यनकी ४६ वी गाथामें तुम्हारे कहनेके मुताबिक बात है। परन्तु वहाँ हरिकेशीजीने, ब्राह्मणोंको हिंसा जन्य-कुरुक्षेत्रादि
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