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वेताम्बर तेरापंव-मत समीक्षा। ४५ +RRRRRRRRR तीर्थसे विमुख करनेके लिये उपदेश दिया है। वहाँ उपमा दिखलाते हुए कहा हैः-विनय है मूल जिसका, ऐसा जो धर्म, उस रूपी हृद, और ब्रह्मचर्यरूपी निर्मल तीर्थ, उसमें स्नान करनेसे शुद्धि होती है।
इत्यादि उपदेशसे गंगा-गोदावरी वगैरह तीर्थोंका निषे. ध किया है । परन्तु शत्रुजय, गिरनार इत्यादि पवित्र तीर्थोंका निषेध नहीं किया है । ब्रह्मचर्य रूपी जब तीर्थ कहा, तब यहाँ पर उपमान-उपमेय भाव संबन्ध घटाया है । ब्रह्मचर्यको तीर्थतुल्य कहा, तब दूसरा कोई तीर्थ अवश्य होना चाहिये, यह बात अर्थात् सिद्ध होती है । और वह तीर्थ शत्रुजयादि है ऐसा हमने सातवे प्रश्नमें दिखला दिया है । उसी तरह अंतगडदशांगसूत्रके पृष्ट ९ मैं भी पाठ इस तरहका है:___ “एवं जहा अणीयसे कुमारे, एवं सेसावि अपंतसेणे, अजितसेणे, अणिहिअरिउ, देवसेणे,
सेत्तुसेणे छ अज्झयणा, एगगमो बत्तीस उदातो, वीसं वासा परियाउ, चोदसपुवाई सत्तुजेसिद्धा" _अर्थात्-जैसे अणीयस कुमारके लिये ऊपर कहा है, वैसे ही दूसरे भी अनंतसेन, अजितसेन, अजीहितरिपु, देवसेन, शत्रुसेन इन मुनिओंके लिये भी जानना, अर्थात् अणीयस वगैरह छे मुनि शत्रुजय पर्वत पर सिद्ध हुए।
ऐसे २ पाठोंके आधारसे हम शत्रुजय तीर्थकी प्ररुपणा करते है । ऐसे एक-दो पाठ नहीं, सूत्रोमें शत्रुजय संबन्धि अनेकों पाठ मिलते हैं। जिस तीर्थपर अनन्त मुनि मुक्ति गये हैं तथा जिसके विषयमें सूत्रोमें स्पष्ट पाठ मिलते हैं. उस
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