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श्वेताम्बर तेरापंथ - मत समीक्षा ।
के समय ) ५ औदारिककाययोग ६, औदारिक मिश्रकाययोग ( समुद्घातके समय ) ७, केवलज्ञान तथा केवलदर्शन स्वरूप दो उपयोग होते हैं । तेरहवाँ गुणठाणा हो वहाँतक शुक्ललेश्या होती है, चौदहवे गुणस्थानक में लेश्या नहीं होती । यद्यपि आत्मातो सच्चिदानंदमय है, परन्तु यदि आठ प्रकारके आत्माकी विवक्षा कीजाय, तो 'कषाय आत्मा' को छोड़करके योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा, वीर्यात्मा तथा द्रव्यात्मा ये सात आत्मा हैं । अब केवल - ज्ञानी न संज्ञी हैं, न असंज्ञी हैं चेष्टाको संज्ञा कहते हैं । संज्ञा संज्ञी कहा जाता है । केवली भगवान्को द्रव्यमन है, परन्तु मनइन्द्रियसे कार्य लेते नहीं हैं । अर्थात् उससे भूत-भविष्यवर्तमानका विचार करते नहीं है । अपने केवलज्ञानसे ही साक्षात् करते हैं | पनवणाजीके ३१ वे पद में केवलीसंज्ञी नहीं तथा असंज्ञी नहीं, ऐसा दिखलाया है ।
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क्योंकि - मनइन्द्रियजन्य जिसको होती है, वह
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प्रश्न ६ - पंचमाहाव्रतधारी छंदमसत मुनीमैं जीवरो भेद गुठiणों डंडक कीसो कीसो पावै इणांरी गत जात इद्र काया कीसी ओर प्रजा प्रांण शरीर जोग उप्पीयोग आतमा लेश्या कीतनी २ कोन २ सी पावैः ।
उत्तर- छमस्थ मुनिको जीवके भेदमेंसे गर्भजपंचेन्द्रिय मनुष्यका भेद होता है । गुणस्थानक छठेसे बारहवे तक होते हैं । दंडक मनुष्य दंडक । गति देवलोककी होती है, क्योंकि पंचमहाव्रत धारी छद्मस्थ मुनिको सम्यक्त्व अवश्य होता है । और सम्यक्त्ववाला जीव वैमानिक के सिवाय दूसरा आयुष्य नहीं बांधता है। कदाचित् पहिले किसी गतिका आयुष्य बांधा हो,
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