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श्वेताम्बर तेरापंथ-मत समीक्षा ।
जो जिणपडिमं न पूराइ सो नरो मिच्छदिट्ठी जालि -~ अवो मिच्छदिट्टिस्स नाणं न हवइ चरणं मुक्खं न दवइ सम्मादिस्ति नाणं चरणं मुक्खं च दवइ । से ते गोयमा ! सम्मदिठिस्स जिणपडिमा
सुगंधपुष्पंचदाविलेवरोहिं पूजा कायव्वा "
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अर्थात् - उस कालमें, उस समय में तुंगिया नगरी में बहुत श्रमणोपासक - श्रावक रहते थे । शंख, शतक, शिलमवाल, ऋषिदन्त, दमक, पुष्कली, निविद्ध, सुप्रतिष्ठ, भानुदत्त, सोमिल, नरवर्मा, आनंद, कामदेवादि आर्य, अन्यत्र - दूसरे गाममें रहते हैं । जो आढ्य, दीप्त, विस्तीर्ण, विपुलवाहनवाले ( यावत् ) लब्धार्थ, गृहीतार्थ, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या तथा पूर्णिमा इन तिथिओं में प्रतिपूर्ण पौषधको पालते, साधु तथा साध्विओंको प्रासुक एषणीय अशन-पान - खादिम - स्वादिम आहारको प्रतिलाभते और चैत्यालयों में तिन्हों संध्या में चंदन - पूष्प धूप तथा वस्त्रादिसे अर्चन करते ( यावत् ) जिनमंदिर में विहरते हैं । हे भगवन् ! वे श्रावक, किस हेतुसे पूजा करते हैं ? | गौतम ! जो जिन प्रतिमाको पूजता है - वह मनुष्य, सम्यग् दृष्टि जानना । और जो मनुष्य जिनप्रतिमाको नहीं पूजता है, वह मिध्यादृष्टि जानना । मिथ्या दृष्टिको ज्ञान - चारित्र - मोक्ष नहीं है । और सम्यक दृष्टिको ज्ञान - चारित्र मोक्ष है । अत एव हे गौतम ! सम्यग्दृष्टि सुगंधि पुष्प तथा चन्दनके विलेपनसे जिन प्रतिमाकी पूजा करते हैं ।"
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इत्यादि पाठोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भगवान् ने द्रव्य पूजा करनेमें धर्म कहा है, तथा आज्ञा फरमाई है । तिस परभी
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