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શુભસંગ્રહ ભાગ ચેાથો
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५३-वीरोचित-सूक्तियां सुभट-शिरोमणि नहीं उठाते कापुरुषों पर अपना हाथ । कभी नहीं मृगराज ठानते अपना युद्ध अजा के साथ ॥
यद्यपि टुकड़े टुकड़े होकर कट जाता है सकल शरीर । किन्तु नहीं पीछे हटते हैं रण-वांकुरे लड़ाके वीर ॥
निर्भय निडर डटे रहते हैं करने को सैनिक संग्राम ।
आत्म-समर्पण करके करते नहीं कलंकित कुल का नाम ॥ कोटि कोटि सेना लखि अरि की शूर न होते हैं भयभीत । जय पाना अथवा मरजाना ही होती है उनकी नीत॥
___(२सहेश" भासिमाया)
५४-सैनिक-धर्म में हूं सैनिक सुभट समर की रहती है मुझ को नित चाह । रण-भेरी सुन कर बढ़ता है क्षण क्षण में मेरा उत्साह ॥ अस्त्र शस्त्र की झनकारों में आता है मुझ को आनन्द । पी कर के रिपु-रक्त चाव से निर्भय फिरता हूं सानन्द ॥ रहता है सूने शमशानों पर निश दिन मेरा आवास । हो कर बद्ध खड़ा रहता है कुटिल काल भी मेरे पास ॥ बन के भीषण हिंसक पशु सब छिप जाते हैं मुझे विलोक । मेरी सिंहगर्जना सुन कर दहलाते हैं तीनों लोक ॥ भला कहो फिर क्यों भय खाकर छोई अपना सैनिक धर्म । कैसे विमुख युद्ध से हो कर करूं कायरों का सा कर्म ॥
("वीर "मा सम-श्री. दिव्य वि)
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