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[ ४३ ] कोई पाप नहीं है कृत उपकार को भूल जाना ही कृतघ्नता है मेरा खयाल से आज इस ज्ञाति की छिन्न भिन्न दशा का मुख्य कारण कतघ्नता ही हैं। अतएव ओसवालों का ही नहीं पर जैन समाज के एक एक बच्चे का कर्तव्य है कि वे अपने परोपकारी गुरु वर्य का प्रत्येक वर्ष बडा ही समारोह से जयन्ति महोत्सव मना के अपने को कृतार्थ बनावें ।
क्या उन महात्माओं के हृदय में कभी ऐसे विद्रोहत्मक भावों का आविष्कार हुआ होगा-कि जैसे आज आप लोग धर्म के नाम पर वाडावन्धी पक्षापक्षी और संकुचित विचारादि अनेकानेक अत्याचार कर रहे हैं ? क्या उन्होंने स्वप्न में भी ऐसा विचार किया होगा? कि जो हम भिन्न २ जाति अथवावर्गों को एक प्रेम सूत्र में गठित कर रहे हैं वह पुनः कालान्तर में विभिन्न एवं छिन्न भिन्न हो कर खण्डित हो जायगा ? कदापि नहीं। सज्जनो! इस विभिन्नता के कारण अन्य लोगों ने आपका प्रेम ऐक्यता व सम्पत्ति को खूब लूटा । फिर भी आप तो कुम्भकर्ण की भांति अचेतावस्था में निद्रा देवी की गोद में पड़े हुए हैं। अतएव अब समय व्यर्थ खोने का नहीं है समय पुकार पुकार कर कहता है कि सावधान हो कर धर्म के नाम की बलिवेदी पर बलिदान हो जाइये।
प्राचार्यश्री ने उन अजैनों को जैन बना कर ही वहां से प्रस्थान न कर दिया था पर उस नवीन स्थापित समाज को दृढता के सूत्र सम्बद्ध करने के हेतु रत्नप्रभसूरिजी ने अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया। उन नवीन कृत श्रावकों को धर्म के तत्वों का भली भांति परिचय दे कर उनके विधि विधानों को बतलाया।
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