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[ ४२ ] वन्दन कर विद्याधर व देव देवो वहां से विसर्जन हो अपने स्थान पर पहुंच गये।
हमारे चरित्र नायक आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिने उपकेशपुरमें अनेक अजैनों को जैन बनाकर महाजनवंश' की स्थापना की आगे चल कर उपकेशपुर से अन्य स्थान में जाने के कारण वे उपकेशवंशी कहलाये और उपकेशपुर नगर का अपभ्रंस नाम अोशिया होने से वे उपकेशवंशी ओसवालों के नाम से प्रख्यात हुए उपकेश वंश अर्थात् प्रोसवालवंश पर प्राचार्य श्री का कितना उपकार है वह न तो मुह से कहा जाता है और न इस लोहा की तुच्छ लेखनी से लिखा भी जाता है। जो मांस मदिरा और व्यभिचार सेवन कर नरक के रास्ते जा रहे थे उनको सद्धर्म में स्थिर कर स्वर्ग मोक्ष के अधिकारी बनाया वह भी एक ही आदमी को नहीं पर वंश परम्परा के लोगों के लिये। अहो! यह कितना उपकार है। यदि हम उस प्रातः स्मरणिय महात्मा का स्मरण न करें तो हम कितने कृतघ्नी हैं। हमारी इस विभिन्नता का दूसरा नाम है अधम्मता । यही हमारे हृदय की दूषित वायु जैनधर्म अथवा ओसवाल जाति का पतन को कारण मात्र हुई है।
सज्जनों ! हताश न होइए यह सव काल चक्र का ही प्रभाव है। खैर ! परन्तु अभी भी तुम्हारे लिये समय है यदि तुम उस घोर अज्ञानता के मद मतंग न होकर शुद्ध सनातन धर्म के प्रवर्तकों के बतलाये हुए साधनों से अपने हृदय की दुषित वायु को एक सच्चा स्वरूप देकर अापना महोदय कोजिये।
आप जानते हो कि संसार में कृतघ्नता के बराबर
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