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जयलक्ष्मीटीकासमेता।
(१५३) त्राण्यश्विन्यादिउत्तराः॥ हस्तेंद्रमूलवारुण्याः पूर्वाभाद्रपदा तथा ॥२॥ याम्यं सौम्यं गुरुयोनिश्चित्रा मित्रजलाहृये ॥ धनिष्ठा चोत्तराभाद्रा मध्यनाडीव्यवस्थिता ॥ ३ ॥ कृत्तिका रोहिणी सार्प मघा स्वातीविशाखिके ॥ उषा च श्रवणं पूषा पृष्ठनाडीव्यवस्थिता ॥ ४ ॥ अश्व्यादिनाडीवेधक्ष षष्ठे च द्वितयं क्रमात् ॥ याम्यादि तुर्यतुर्य च कृत्तिकादि द्विषष्ठकम् ॥ ५॥
अथ द्वादशनाडीचक्रम् । अश्विन्यादीति ॥ १ ॥ नाडीवेधेनेति ॥ २ ॥ याम्यमिति ॥३॥ ४ ॥५॥
अथ विवाहाचंशचक्रम् ।
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एवं निरीक्षयेद्वेधं कन्या मंत्रे गुरौ सुरे॥ पण्यस्त्रीस्वामिमित्रेषु देशे ग्रामे पुरे गृहे ॥ ६ ॥ एकनाडीस्थऋक्षाणि यदा स्युर्वरकन्ययोः॥ तदा वेधं विजानीयाद्गुर्वादिषु तथैव च ॥७॥ प्रकटं यस्य जन्मः तस्य जन्मक्षतो व्यधः॥प्रनष्टं जन्मभं यस्य तस्य नामक्षतो भवेत् ॥ ८ ॥ द्वयोजन्मभयोर्वेधो द्वयोर्नामभयोस्तथा ॥ जन्मनामःयोर्वेधो न कर्तव्यः कदाचन ॥९॥
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