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मारवाड़ का इतिहास
इसके अगले वर्ष यह बुंदेले वीर घुझारसिंह को दण्ड देने के लिये सैयद खाँजहाँ के साथ रवाना हुए। जब धामुनी के किले पर शाही-सेना का अधिकार हो गया, तब यह अपनी सेना के साथ, प्रभात होने की प्रतीक्षा में, बाहर ही ठहर गए। ऐसे समय में इधर-उधर घूमते हुए लुटेरों के हाथ की मशाल से चिनगारी झड़कर किले के बारूदखाने में आग लग गई। इससे किले की एक बुर्ज के उड़ जाने के कारण बाहर की तरफ़, उसके नीचे खड़ी शाही सेना के ३०० योद्धा दबकर मर गए । इन योद्धाओं में अधिक संख्या अमरसिंहजी के सैनिकों की होने से उस समय इन्होंने, बड़ी दृढ़ता और साहस के साथ अपनी सेना के हताहतों का प्रबन्ध किया और सेना के प्रबन्ध में किसी प्रकार की गड़बड़ न होने दी । इससे प्रसन्न होकर बादशाह शाहजहाँ ने माघ सुदि १२ (ई० स० १६३५ की १९ जनवरी) को इनका मनसब बढ़ाकर तीन हजारी जात और डेढ़ हजार सवारों का कर दिया।
इसके बाद जब साहू भोंसले ने, निजामुलमुल्क के कुटुम्ब के एक बालक को ग्वालियर के किले के कैदखाने से निकाल कर, बगावत का झण्डा खड़ा किया, तब स्वयं बादशाह शाहजहाँ सेना लेकर दौलताबाद पहुँचा और वहाँ से उसने भोंसले को दबाने के लिये तीन सेनाएँ रवाना की। उनमें खाँदौरां के साथ की सेना के अग्रभाग में अमरसिंहजी की सेना रक्खी गई थी। उक्त उपद्रव के शान्त हो जाने पर, वि० सं० १६१३ । ई० स० १६३७) में, यह दरबार में लौट आए । इसपर बादशाह ने इन्हें खिलअत, चाँदी के साज़ का घोड़ा और तीन हजार जात तथा दो हजार सवारों का मनसब देकर इनका सत्कार किया ।
अगले वर्ष जिस समय शाहजादा शुजा, शाही लश्कर के साथ, कन्धार की तरफ़ मेजा गया, उस समय बादशाह ने अमरसिंहजी को मी खिलत, रुपहरी जीनका घोड़ा और नकारा देकर उसके साथ रवाना किया ।
१. बादशाहनामा, मा० १, दौर २ पृ० ६६ । २. बादशाहनामा, भा॰ १, दौर २, पृ० ११० । ३. बादशाहनामा, भा• १ दौर २, पृ० १२४ । ४. बादशाहनामा, भा० १, दौर २, पृ० १३६-१३८ । ५. बादशाहनामा, भा॰ १. दौर २, पृ. २४६-२४८ । ६. बादशाहनामा, मा॰ २, पृ० ३७ ।
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