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राव अमरसिंहजी वि० सं० १६६५ की ज्येष्ठ सुदि ३ ( ई० स० १६३८ की ६ मई) को इनके पिता राजा गजसिंहजी का स्वर्गवास हो गया । उस समय यह शाहजादे शुजा के साथ काबुल में थे । इसलिये शाहजहाँ ने इनके पिता की इच्छा के अनुसार इनके छोटे भ्राता जसवन्तसिंहजी को राजा का ख़िताब देकर जोधपुर का अधिकारी नियत कर दिया और अमरसिंहजी को राव की पदवी देकर नागौर का परगना जागीर में दिया। इसी के साथ इनका मनसब भी तीन-हजारी जात और तीन हजार सवारों का कर दिया। अगले वर्ष के प्रारम्भ (ई० स० १६३६ ) में बादशाह ने अमरसिंहजी की वीरता से प्रसन्न होकर पहले उन्हें एक सवारी का घोड़ा और फिर एक हाथी उपहार में दिया ।
वि० सं० १६९८ (ई० स० १६४१ के मार्च ) के प्रारम्भ में बादशाह ने राव अमरसिजी को शाहजादे मुराद के साथ फिर एक बार काबुल की तरफ़ भेजा। इस बार भी इन्हें खिलअत, रुपहरी साज़ का घोड़ा और सवारी का हाथी दिया गया। परन्तु इस घटना के पाँच मास बाद ही राजा बासू के पुत्र जगतसिंह के बागी हो जाने से बादशाह ने राव अमरसिंहजी और शाहजादे मुराद को, उसके उपद्रव को शान्त करने के लिये, काबुल से स्यालकोट होते हुए पैठन की तरफ जाने की आज्ञा दी। इसके बाद जब जगतसिंह ने, परास्त होकर, शाही अधीनता स्वीकार कर ली, तब करीब सात मास के बाद यह शाहजादे के साथ, लौटकर बादशाह के पास चले गएँ।
इसी बीच ईरान के बादशाह ने कंधार-विजय का विचार कर उस पर अधिकार करने के लिये अपनी सेना खाना की । इसकी सूचना पाते ही बादशाह ने राव अमरसिंजी को, शाहजादे दाराशिकोह के साथ रहकर, ईरानी सेना को रोकने की आज्ञा दी । इस अवसर पर इनका मनसब चार-हजारी जात और तीन हजार सवारों का कर, इन्हें खिलअत के साथ ही सुनहरी साज का एक घोड़ा भी दिया । अन्त
१. बादशाहनामा, भा॰ २, पृ० ६७ । २. बादशाहनामा, भा॰ २, पृ. १४५ । ३. बादशाहनामा, भा॰ २, पृ० २२८ । ४. बादशाहनामा, भा॰ २, पृ. २४० । ५. बादशाहनामा, भा॰ २, पृ० २८५ । ६. बादशाहनामा. भा॰ २, पृ० २६३-२६४ । (इस मनसब का उल्लेख बादशाहनामा, भा॰ २, पृ० ७२१ पर भी दिया गया है।)
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