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मारवाड़ का इतिहास उस समय मारवाड़ के बहुत से सरदार आकर इनकी सेवामें उपस्थित हो गए और जब वहां पर उनकी तरफ़ से नज़र निछावर हो गई, तब मानसिंहजी की तरफ़ से भी उन सब का यथोचित आदर-सत्कार किया गया । मँगसिर वदि ७ ( ५ नवंबर ) को यह जोधपुर के किले में प्रविष्ट हुए । इस पर पौकरन-ठाकुर सवाईसिंह ने निवेदन किया कि स्वर्गवासी महाराजा भीमसिंहजी की एक रानी ( देरावरजी ) गर्भवती है । यदि उसके गर्भ से पुत्र उत्पन्न हुआ तो उसके लिये आप क्या प्रबंध करेंगे । यह सुन मानसिंहजी ने उत्तर दिया कि ऐसा होने पर मारवाड़ का आधा राज्य उसे देदिया जायगा और हम जालोर लौट जायँगे । परंतु इसके लिये बालक का जन्म होने तक भीमसिंहजी की उस रानी को किले में रहना होगा । यह शर्त सवाईसिंह ने न मानी । इसीसे मानसिंहजी उससे नाराज हो गए। .. इन दिनों मुग़लों और मरहटों का प्रभाव नष्ट हो जाने से अंगरेज़ों की 'ईस्ट इण्डिया कंपनी' बहुत कुछ ज़ोर पकड़ चुकी थी, परन्तु फिर भी अंगरेजों और मरहटों के बीच युद्ध हो रहा था । इससे वि० सं० १८६० की पौष सुदि ।
मानसिंहजी ने उस सेना के अधिकारियों से कहला दिया कि हमारा विचार एक मास बाद, कार्तिक वदि ३० (दीपोत्सव) (१५ अक्टोबर ) को, जालोर का किला खाली कर देने का है, इसलिये तब तक युद्ध बंद रक्खा जाय । यह बात सेनापति सिंघी इंद्रराज ने मानली । परन्तु अन्त में प्रायस देवनाथ के कहने से मानसिंहजी ने कुछ दिन और भी किले में रहना स्थिर किया । इसी बीच, कार्तिक सुदि ४ (१६ अक्टोबर) को, महाराजा भीमसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। इस पर भीमसिंहजी के धायभाई शंभुदान, भंडारी शिवचंद, और मुहणोत ज्ञानमल आदि ने सिंघी इंद्रराज को लिखा कि एक तो स्वर्गवासी महाराज की एक रानी गर्भवती है, दूसरा पौकरन-ठाकुर सवाईसिंह अब तक अपनी जागीर से लौट कर नहीं पाया है, इसलिये किले का घिराव न उठाया जाय । परन्तु सिंघी इंद्रराज और भंडारी गंगाराम ने इस पर कुछ ध्यान नहीं दिया और तत्काल युद्ध बंदकर मानसिंहजी से जोधपुर चलने की प्रार्थना की । इन्होंने भी उनकी प्रार्थना स्वीकार कर उनकी तसल्ली की और उन सरदारों के नाम भी, जो महाराजा भीमसिंहजी द्वारा मारवाड़ से निकाल दिए जाने से कोटे में थे, खास रुके भेज कर उन्हें लौट आने का
लिखा। १. मानसिंहजी के जोधपुर पहुँचने के पूर्व ही पौकरन-ठाकुर की सलाह से स्वर्गवासी महाराजा
भीमसिंहजी की रानियां (देरावरजी और सुंवरजी) (गुसांईजी की जागीर के गांव) चौपासनी चली गई थी। इसकी खबर मिलने पर मानसिंहजी ने सवाईसिंह को समझा कर उन्हें वापस बुलवा लिया । परन्तु यहां आने पर सवाईसिंह ने उनका निवास किले के बजाय नगर के बीच तलहटी के महलों में करवा दिया ।
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