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३२. महाराजा मानसिंहजी
यह महाराजा विजयसिंहजी के पौत्र और गुमानसिंहजी के पुत्र थे । इनका जन्म वि० सं० १८३६ की माघ सुदि ११ (ई० स० १७८३ की १३ फरवरी ) को हुआ था। पहले लिखा जा चुका है कि वि० सं० १८५० के आषाढ़ ( ई० स० १७६३ की जुलाई ) में जिस समय इनके चचेरे भाई भीमसिंहजी गद्दी पर बैठे, उस समय यह जोधपुर से लौटकर, इधर-उधर के गाँवों को लूटते हुए, जालोर चले गए और वहां के दुर्ग का आश्रय लेकर महाराजा भीमसिंहजी की भेजी हुई सेना का मुकाबला करने लगे। वि० सं० १८६० के कार्तिक ( ई० स० १८०३ के अक्टोबर ) में महाराजा भीमसिंहजी का स्वर्गवास हो गया । उनके पीछे पुत्र न होने के कारण उनकी जालोर की सेना के सेनापतियों-भंडारी गंगाराम और सिंघी इन्द्रराज ने युद्ध बंद कर मानसिंहजी से जोधपुर चलने और वंशक्रमागत राज्य का अधिकार ग्रहण करने की प्रार्थना की। इसीके अनुसार जिस समय यह जालोर से रवाना होकर सालावास पहुँचे,
१. महाराजा विजयसिंहजी की पासवान (उपपत्नी)-गुलाबराय ने अपने पुत्र तेजसिंह के
मर जाने पर मानसिंहजी को अपने पास रखलिया था। परन्तु महाराजा विजयसिंहजी के मारवाड़ के सरदारों को समझाने के लिये जाने पर जब, वि० सं० १८४६ के वैशाख ( ई० स० १७६२ के अप्रेल) में, उनके पौत्र (फतेसिंहजी के दत्तक पुत्र ) भीमसिंहजी ने जोधपुर के किले पर अधिकार करलिया, तब शेरसिंह (जिसको पासवान के कहने से महाराज अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे) और मानसिंहजी जालोर के किले में भेज दिए गए। अगले वर्ष शेरसिंह तो लौट कर जोधपुर चला आया, परन्तु मानसिंहजी ने अपना निवास वहीं रक्खा । कुछ दिन बाद महाराजा विजयसिंहजी ने वह प्रान्त इन्हें जागीर में दे दिया। इसके बाद जब महाराजा भीमसिंहजी जोधपुर की गद्दी पर बैठे, तब उन्होंने मानसिंहजी को पकड़ने के लिये एक सेना भेज दी । इसी के घिराव से तंग आकर वि० सं० १८६० की वैशाख सुदि १ (ई० सन् १८०३ की २२ अप्रेल) को
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