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करुणरसकदंबकं
चंपयलयव्व वणदवझेलक्किया तो नवजलधरेणं । आसत्था संजाया सहसा दट्ठूण तं एसा ॥ ३३ ॥ अह विम्हियाइ तीए पुट्ठो सो पुव्वैवइयरं भणइ । मा पुच्छ अंब ! तुमं दुच्चरियं मज्झ पावस्स ॥ ३४ ॥ अइनिब्बंधे य कए कहियं सव्वंपि तेण तो तीए । दूरं विसन्नहिययाइ पभणिओ वच्छ ! जइ वि इमं ॥ ३५ ॥ विहियं तर तहावि हु गिण्हसु एत्तियगए वि जिणदिक्खं । जेण न निवडसि पुरओ अणंतभवदुक्खगहणंमि ॥ ३६॥ सो भइ अंब ! नाहं जो तुम्हं हिओवसणं । किंतु वयणं गुरूणं अलंघणिज्जं जि (ज) णाणं पि ॥ ३७ ॥ इय भणिउं गुरुमूले गंतुं संबेयनिब्भरं एसो । भत्तीऍ पणभिऊण कयंजली भाइ विणएण ॥ ३८ ॥ सुमिणेऽवि अकरणिजं कुलप्पसूयाण जं तयंपि मए । पावेण नाह ! विहियं इय जणणी दुहविहे खित्ता ॥ ३९ ॥ तम्हा अहं अजोगो इहि तुम्हाण वयपसायस्स । तहवि हु कीरउ एसो लहइ धिईं जेण मह जणणी ॥ ४० ॥ जणी विहु कहिए सयलंमि वि पुव्ववइयरे तत्तो । आराहउत्ति नाउं गुरूहिं सो दिक्खिओ विहिणा ॥ ४१ ॥ तो नमिउ भणइ गुरुं गैयसत्तोऽहं न नाह ! चिरयालं । धीरपुरिसणुचिनं पव्वज्जामिमं खमो घरि ॥ ४२ ॥ ता जइ तुम्ह अणुन्ना होइ तओ सिग्घमणसणं काउं । १ लाभग्रेस वृत्तांत 3 डीनसत्त्व ४ सायरि
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