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वैदमुत्ता.
(६७) जान नहीं था. भाट भोजकोंकी या इधरउधरकी वातों सुन उनके साथ खरतर दादाजीका नाम जोडके यह ढांचा तय्यार कीया है और वीकानेरमें श्रीपालजी और रामलालजी कमलागच्छके श्रीपूज्यजीकी पग चंपी करनेको रात्रीमे जाया करते थे कीतनीक वातों उनके मुंहसे सुनी फिर उनके आचार्योंका नाम और साल संवत वदलाके कीतनीक ख्याता लिखी है आखिर असत्यका पग कहां तक चले. आगे इसी ख्यातमे लिखा है कि वि० स० १२०१ में चितोडका राणा भीमसी श्रेष्टिगोत्रवालोंको वेदोकी पद्वि दी और प्राधा गौत्र खरतर हो गया यह भी महा मिथ्या है कारण न तो १२०१ मे चितोड पर भीमसी राणा हुवा है न उस समय वेदोंकी पद्वि मीली हैं न आधा गोत्र खरतरा हुवा. यह सब माया सहित मृषावाद है दर असल वीरात् ७० वर्षे आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिने ओशीयों नगरीमें महाराजाधीराज पँवार वंसी उपलदेको प्रतिबोध दे अठारा गोत्रमें श्रेष्ट होनेसे राजाका गोत्र श्रेष्टिगोत्र स्थापन कीया वाद इस गोत्रसे ३० साखाओं निकली है जिस्मे मुख्य वैदै मुत्ता है इस समालोचनाका कर्ताने भी वेद मुत्ता जाति, जन्म लीया है.
अन्तमें हम हमारे पाठकोंको यह बतलाना चाहाते है कि यतिजीने 'महाजन वंस मुक्तावलि 'में संचेती चोरडीया बाफणा लुणावत रांका जैसी प्रसिद्ध कमलागच्छकी जातियोंको तथा सींघी लोढा मुनोत ढढ्ढादि प्रसिद्ध तपागच्छकी जातियोंको खरतर होना लिख मारा । क्या यतिजीको यही विश्वास था कि कभी कोइ निर्णय करनेवाला मीलेगा भी नहीं ? खरतर गच्छकी कीसी: प्राचीन पट्टावलि या अन्थमें यह नहीं लिखा है की नेमिचन्द्रसूरि वर्धमानसूरि जिनेश्वरसूरि जिनवल्लभसूरिने कोइ नया जैन बनाया हो! दादाजी जिनदत्तसूरिके बारामें तो दन्तकथाएं प्रचलित है कि दादासाहिबने सवालक्ष जैन बनाया. पर इस्मे भी चोरडीया बाफणा
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