SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६८) निवेदन. आर्य बोत्थरादि जातियों दादाजी बनाइ लिखना तो बिलकुल मिथ्या है विद्वानोंका यह अनुमान है कि कितनेक अन्यगच्छीय श्रावक पांच कल्याणक माननेवालो कों के कल्याणक मनाके खरतर यतियोंने अपना श्रावक माना है जैसे मूर्तिपूजा छोडाके ढुंढीया तेरापन्थीयोने अपना श्रावक माना है दर असल त्यागी साधुओं को तो सब गच्छवाले गुरू मानके वस्त्र पात्र अशनादिसे सन्मान करते है उनोंके लीये तो गच्छकी खेंचाताण है भी नहीं अगर कोइ करते है तो व्यर्थ है गच्छकी खेंचाताण तो द्रव्य रखनेवाले गच्छकी गोचरी लानेवाले यतियोंने करी है जिनसे समाजको कीतना नुकशान उठाना पडा है ? __ यह समालोचना मैंने खास यति रामलालजीकी बनाइ महाजन मुक्तावलि पर ही करी है अगर इसको पढके अन्य कीसीको राजी नाराजी पाना हो तो मेरा एक रतीभर भी दोष नहीं है दोष है यति रामलालजीका कि जिसने पहलेसे असत्य वातें लिख अन्य गच्छवालोंका अपमान कीया है अगर मेरे लिखने पर कोइ सजन प्रत्यालोचना करना चाहे तो मेरी नम्र निवेदन है कि वह सप्रमाण और सभ्य भाषामें लिखे की आजका जमानामे लेखककी विद्वान लोक कदर करे इत्यलम् । ॐ शान्ति शान्ति शान्ति. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034521
Book TitleJain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1927
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy