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________________ वरडिया गौत्र. ( १७ ) उस समय चौहानोंका राज था न उस समय चौहानोंके साथ सोनीगरोंकी उपाधि थी न उस समय वर्धमानसूरीका होना साबित होता है दरअसल वीरात् ७० वर्ष श्रशीया नगरीमे आचार्य रत्नप्रभसूरिने १८ गोत्र में १० वा गोत्र संचेती स्थापन कीया था. संचेती सुचेति साहाचेती आदि ४४ शाखाएं एक संचेती गोत्रसे हुई है संचेतीगोत्र की वंसावली आजतक उपकेश (कमला) गच्छीय महात्मा लिखते आये हैं जहांपर कमलागच्छाचायों का विहार न हुवा वहां कीतनेक संचेती क्रिया तपा खरतर ढुंढीया तेरापंथीयोकी करने लग गये है इनसे उन जातिका मूल गच्छ बदल नहीं सक्ता है संचेतीयोंका मूल गच्छ तो कमलागच्छ ही है यतियोंकी गप्पों पर कोइ संचेती विश्वास न करेंगा. ( २ ) वरदीया - बरडिया | वारिधिजी लिखते है कि धारानगरीका राजा भोज परलोक होने पर धारा कुंवारो ने छीन ली तब भोजकी ओलादवाला लक्ष्मणादि केकइमें वास कीया वहां पर वि. सं. ९५४ में नेमिचन्द्रसूरि आये लक्ष्मणने धन संतानकी याचना करी सूरीजीने कहा कि तुम जैन धर्म पालो तो में धन बतला देता हूं । लक्ष्मणने स्वीकार कर लीया सूरीजीने लक्ष्मणके मकानके पीछे धन गड़ा हुवा था वह बतला दीया और तीन पुत्र भी दे दीया जिसमें नारायणकी ओरतने अपने पीहर में एक युगलको जन्म दीया उनमें एक पुत्री थी दूसरा पुत्र सांपकी सीकलसा था बाद पुत्री एकदा चुल्हामें आग लगाती थी आगे चुल्हा में पुत्र सुता था वह भस्म हो व्यंतरदेव हुवा उसने शाप दीया कि वरडियों के घरमें पुत्री जन्मेगी वह सुखी न रहेगी कीसीने कहा कि हमारी कम्मर में दर्द हैं व्यंतरने कहा कि लक्ष्मणके मकानकीभीत से स्पर्श करनेसे हरक रोग चला जावेगा इत्यादि और श्रीपालजी लिखते है कि वि. सं. १०३७ में वर्धमानसूरिने वरडिया बनाया हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034521
Book TitleJain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1927
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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