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संचेती गोत्र.
दिल्लिपर चौहानोंका राज ही नहीं था पुत्रका नाम तो यतिजीने लिखदीया पर राजाका नाम यतियोंके दफतरवालोंको यादतक भी नहीं था. दर असल वि. स. ८४८ से १२२० तक दिल्लिपर तुवरोंका राज था १२२० मे अजमेरके विशलदेव चौहानने दिल्लिका राज छीन लीया १२४६ तक अन्तिम सम्राट् पृथ्वीराज चौहानका राज था तब यतिजी १०२६ में दिल्लिपर चौहानोंका राज लिखते है वह भी विलकुल गल्त है आगे चौहानों के साथ सोनीगरोंकी उपाधि भी १०२६ मे नहीं थी कारण नाडोलका चौहान राव पाल्हणदेव के तीन पुत्रोंसे कीर्तिपाळको १२ ग्राम जागीरीमें दीया था बाद कीर्तीपालने अपने भुजबलोंसे जालौर के कुंतुपाल पँवरका राज छीन के वि. स. १२३६ में जालोर अपने आधिन कर सोनगीरी पाहाड पर कील्ला बन्धाना शरू कीया। कीर्तिपालके बाद उनका पुत्र राव समरसिंह राजगादी बेठा उसने सोनगीरीका अधुरा कीला को सम्पुर्ण कराया तबसे चौहानों के साथ सोनगरोंकी उपाधि लगी। पाठक वर्ग विचारे कि चौहानों के साथ सोनागरोकी उपाधि वि. स. १२३६ के बाद लगी हुई तब यतिजी १०२६ मे दिल्लिमें सोनीगरोंका राज वतलाते है क्या यह मिथ्या नहीं है ? अब आचार्य वर्धमानसूरिका समयको देखिये वि. १०८८ में वर्धमानसूरि आबुपर विमलशाहाका मन्दिरकी प्रतिष्टा करी थी और १११० आसपासमें आपका स्वर्गवास हुवा वास्ते १०२६ मे वर्धमानसूरिका होना भी असंभव है यह सब ख्यातही विगर पैर की है नतो दिल्लिमें
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