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________________ संचती गोत्र. (१५) खरतराचार्य तो बाद में हुवा था १७॥ गौत्र खरतर हो गया था तो क्या एक ग्राम में हुवा था या सर्व भारत में खरतर दुवाई फीर गई थी ? अगर स्वगच्छ को चैत्यवासी समझ के ही अपना गच्छ छोडा था तो एसा कोनसा गच्छ है की जिस्में चैस्यवासी न हुवा हो । उस समय तो उपकेशगच्छ के हजारों मुनि स्थागी वैरागी भूमंडलपर विहार करते थे खेर फीर खरतरगच्छ में कोनसी त्रुटी हुई जिनसे वह १७॥ गौत्र वापीस उपकेशगच्छ को गुरु मानने लग लये आज भी मान रहे है और आप देख रहे है यतिजी ! आज की दुनीयों एसे द्वेष कदाग्रह को हजार हाथ से नमस्कार करती है गच्छ कदाग्रह को छोड दुनियों एक रूप में हो जैन कहलाने में ही अपनी उन्नति समजती है एसी और भी बहुतसी अनुचित वातें लिख मारी है पर इस समय हमे इतना अवकाश नहीं है और आज का समय भी एसी द्वेषकी वातो कों नहीं चाहाता है । वास्ते हम खास मुद्दे की बातों पर ही समालोचना लिखेंगे। (१) संचेतीगौत्र । वारघिजी लिखते है कि दिल्लि नगरमें सोनीगरा चौहान राजाका पुत्र बोहिक्षको सांप काटा वहांपर वि. सं. १०२६ मे वर्धमानसूरि आये विषोत्तर जैन बना संचेतीगोत्र थापन कीया और श्रीपालजी जैन सम्प्रदायशिक्षामें सांपकाटनेका नहीं लिखा हैं । समालोचना-अव्वलतो दानो यतिजी लिखते है कि हमारे प्राचीन दफतरोंसे यह ख्यातो लिखी है जिस्मे कीतना अन्तर है दर असल जिनके दलिमें आया वैसे लिख मारा, दूसरा १०२६ में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034521
Book TitleJain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1927
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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