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________________ ...|| तेज प्रमाणे, भाव निक्षेपना विषयमा पण, ते 'लोकिक,' अने 'कुपा वचनिक,' क्रियानो प्रवेश थवानो संभव आवतो हतो, तेने पण 'नो' शब्दथी. सर्वथा प्रकारथी निषेधी त्रिजा 'लोकोत्तरिक' नामना भेदमां जेटले अंशे तेमां उपादेयता अमारी हती तेटलीनेज अंगीकार करी लीधी छे. ४ ॥ ॥ वास्ते लकडेका बजारमां, कपडेका बजार, कोइ दिन पण घुसी सके तेम नी । अने उपादेय वस्तुना, चारो निक्षेप उपादेय रूपेज छे, पण त्यागवा लायक नथी, गुरुविनाना तमो, ते गणधर महाराजाओना, आशयने समज्या वगर, अडदने मग भेगा भइडी काहडो छो, जरा लक्ष दईने सिद्धांतना पाठने जोशो तो, स्पष्ट पणे समजाइ आवसे. अमो क्यां मुधी कागल चित्री शं. ॥ ॥ हजु पण जो तमो, आ विषयने, यथार्थ नही समज्या हसो तो, एक शंका उप्तन्न थवानो संभव रहे छे. । ते पण तमारा हितना माटे लखी बता छ.। ॥ते शंका ए छे के, निक्षेप तो करवा मांडया हता अमारी 'उपादेय रूप छ आवश्यकनी नित्य क्रियाना, तो पछी " नाम निक्षेप " जीव अजीवादिकमां, एकज वस्तुना जुदा जुदा स्थानमां, केवी रीते करीने बताव्या. ।। ॥ अने तेज आवश्यक क्रियानो, “स्थापनानिक्षेप " दश जगो उपर करवानू का, आमां केवी रीते समजबुं जे, ते आवश्यकरूप, एकन क्रियाना निक्षेपो थया. ॥ ॥ जैन सिद्धांतथी अजाण पुरुषोने आ शंका उत्पन्न थवानो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034494
Book TitleDharmna Darwajane Jovani Disha Athva Tattvatattva Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAmarvijay Jain Pathshala
Publication Year1907
Total Pages218
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size9 MB
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