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पुस्तकें होती हैं, इनको अपने शरीर पर उठाकर पैदल ही पृथ्वी पर विचरते हुवे एक गांव से दूसरे गांव को जाते हैं । वर्षाऋतु में चार मास तक एकही स्थल में निवास करते हैं । आठ महीनों तक पर्यटण करते हैं। भिक्षा मांग कर आहार लेते हैं। सूर्योदय से मूर्यास्त पर्यन्त कार्यश स्वस्थान छोड़कर बाहर जाते हैं। और रात्रि में बाहर भी नहीं जाते हैं । द्रव्य का स्पर्श भी नहीं करते हैं । स्त्री, पशु
और नपुंसक से रहित स्थान में निवास करते हैं। स्त्री के यत्किञ्चित् स्पर्श को भी प्रायश्चित्त का कारण समझते हैं । परोपकार करने के वास्ते सदा कटिबद्ध रहते हैं। अप्रिय वचनों का उच्चारण भी नहीं करते । ऐसे प्रसंग, जिनसे राग-द्वेष की उत्पत्ति होवे, उनका त्याग करते हैं। शत्रु और मित्र पर समभाव रखते हैं । शांतिपूर्वक उपदेश देते हैं । परनिंदा हो, ऐसे वचन बोलते नहीं हैं। जो वस्तुएं अपने पास रखते हैं, वे सब 'अहिंसा की रक्षा के लिये ही रखते हैं। शरीर सुख अथवा मूर्छा के वास्ते नहीं रखते।
__ इस कलिकाल में भी पूर्वोक्त गुणों से विभूषित केवल जैनमुनि ही दृष्टिगोचर होते हैं । पूर्वोक्त गुणों से विपरीत आचरणवालों को शास्त्रकारोंने मुन्याभास (सिर्फ कहने के
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