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मुनि - दिखाव मात्र के मुनि) बताया है । वाचको, चारित्ररत्न की व्याख्या के प्रसंग में तत्संबंधी कुछ विशेष लिखा गया है । तौ भी वह अप्रासंगिक तो नहीं है ।
पूर्वोक्त ज्ञान और दर्शन के साथ चारित्र को जोड़ें तो त्रिपुटी का योग होता है । इस सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र रूपी रत्नत्रय को किन किन मतानुयायी भी प्रकारान्तर से मानते हैं, इस का उल्लेख 'पुरुषार्थ दिग्दर्शन' * नामक पुस्तक में किया है, इस वास्ते जिज्ञासुओं को उस पुस्तक का अवलोकन करना चाहिये । इन तीन रत्नों के सिवाय आत्मोन्नति कदापि नहीं हो सकती है ।
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कतिपय भद्रिक जीव विश्वासु होकर तप, जप, ज्ञान, ध्यान, क्रियाकांड न करते हुए केवल ईश्वर की प्रार्थना मात्र से मोक्ष मानते हैं, परन्तु वह ठीक नहीं है । ईश्वरने स्वयं किस प्रकार के कष्ट सहन किये हैं, उस का विचार सूक्ष्म दृष्टि से करना उचित है । शायद यहाँ पर यह शंका उत्पन्न होगी कि " ईश्वर तो अनादि है, उस को दुःख
* यह पुस्तक भी श्रीयशोविजय जैनग्रंथमाळा - भावनगर ने प्रकाशित की है । - अनुवादक.
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