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रूप है । लोग कहेंगे कि- रुपया-पैसा होते हुए भी कृपणता से खाता नहीं है । परन्तु साधु को दुबला पतला देखकर लोग उसे महा तपस्वी कहेंगे । निरस भोजन करना, यह साधुओं के वास्ते त्याग का कारण माना जायगा, और गृहस्थों के लिए कृपणता कही जायगी । ठंड - धूप सहन करना, यह मुनियों के संबंध में सहनशीलता के रूप में होगा । और गृहस्थों के पास गरम वस्त्र, बूट, छाता आदि न होने के कारण वह दरिद्री कहलायेगा । केशों को नहीं संवारना, यह साधु का भूषण है, लेकिन यह गृहस्थों के लिये दूषणरूप है । एवं भूमिपर शयन करना, यह साधु की निःस्पृहता का सूचक है, और गृहस्थ के लिये दुषण रूप है । इसी तरह से जो वस्तुएं गृहस्थों के लिये अवनति के कारणरूप होती हैं, वेही साधुओं को उन्नति के कारणरूप हैं । इस कारण से साधुओं को गृहस्थों के मार्ग से दूर रहना सर्वथा योग्य है ।
उपर्युक्त वस्तुओं का पालन करनेवाले जैन संवेगी साधुओं के अतिरिक्त दूसरे कोई क्वचित् ही नजर आते हैं। जैनसाधु गाडी, इक्का आदि में कदापि बैठते नहीं हैं, । इतना ही नहीं परन्तु रेल की भी सवारी नहीं करते । खुद के पास जो वस्त्र, काष्ठ किंवा तुंब के पात्र, एवं पढ़ने की
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