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चारीपने के कारण, मोह, ममता, रागद्वेष, उपानह ( जूते ), छड़ी, खडाउ, रेलगाडी, इक्कागाडी, गद्दी, तकिये आदि वस्तुओं का उपयोग द्रव्यत्यागी मनुष्यों में भी दृष्टिगोचर होता है । प्रमादाधीन होने पर भो अहंकार के संयोग से साधुता के योग सिवाय साधुताकी स्थापना करते हैं। कुयुक्तियों के व्यापार द्वारा आत्मा को मलीन बनाते हैं। तो भी ऐसे कठिन समय में जैनमुनि निम्नोक्त वाक्य को ध्यान में रखकर यथाशक्ति उसपर आचरण करते हैं । " गृहस्थानां यद् भूषणं तत् साधूनां दूषणम् " अर्थात् गृहस्थों को जो वस्तु आभूषण रूप हैं वे साधुओं को दूषण रूप हैं । और साधुओं का जो भूषण हैं, वह गृहस्थों के लिये दूषण रूप है । जैसे
Makovic's
काय क्षुत्प्रभवं कदन्नमशनं शीतोष्णयोः पात्रता पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवलम् | एतान्येव गृहे वहन्त्यवनतिं तान्युन्नतिं संयमे
दोषाचापि गुणा भतन्ति हि नृणां योग्य पदे योजिताः ॥ १ ॥
उचित स्थान में जोड़े हुवे दोष भी गुण रूप होते हैं। जैसे कि- क्षुधा से उत्पन्न हुई कृशता ( दुबलापन ) साधुओं को भूषणरूप हैं । किन्तु यही गृहस्थों को दूषण
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