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में प्रतीत होता है । उसी प्रकार अपना - छद्मस्थों का आत्मा जिस संगति में पड़ता है, वैसे ही रंग ढंगवाला मालूम होता है । निदान आस्तिकों की संगति से आस्तिक गुणवाला प्रतीत होता है, और नास्तिक की सोहबत से नास्तिक बनता है । जड़वादी पुरुषों के सहवास से जड़वाद स्वीकारता है, और स्त्री- धन-पुत्रादि के संसर्ग में आत्मा उसके आधीन हुआ मालूम होता है । जब कि गुरु वगैरह के परिचय में आने से वैसी हो बुद्धिवाला दृष्टिगोचर होता है । यह बात अनुभव सिद्ध है । इसका यथास्थिति विचार करना, उस का ही नाम स्व-पर का विवेक है । और उस प्रकार के विवेक को श्रद्धा, तत्त्वरुचि अथवा सम्यक्त्व आदि नामों से शास्त्रकार पहचान कराते हैं । ऐसे उपदेश से होनेवाले सम्यक्त्व को 'अधिगमसमकित ' जानना चाहिए | अब जीव को स्वाभाविक सम्यक्त्व किस प्रकार प्राप्त होता है, उस का संक्षिप्त विवेचन यहां किया जावे तो अयोग्य नहीं होगा ।
समस्त जीव यथाप्रवृत्तिकरण रूप परिणाम विशेष के अधिकारी हैं । इस यथाप्रवृत्तिकरण समय में जीव आयुष्य कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की
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