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दीर्घ स्थिति का क्षय कर के लघु स्थिति करता है । जैसे एक प्राणी के आश्रय से मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर ( ७० ) कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, और अंतराय कर्म की उत्कृष्ट ३० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति है । नामकर्म और गोत्रकर्म की २० कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है । अर्थात् उन सात कर्मों की स्थिति उस समय एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम से कुछ न्यून रहती है । इस यथाप्रवृत्तिकरण रूप परिणामवाला जीव संख्याता अथवा असंख्याता काल पर्यन्त रहता है । ऐसे परिणामवाले जीव राग-द्वेष रूप निबिड़ गांठ के पास आये हुवे हैं । इस प्रकार तत्त्वदर्शी पुरुष निरुपण करते हैं।
अब इस स्थान से कतिपय भव्यप्राणी आत्मोन्नति के मार्ग में आगे बढ़ते हैं। जबकि अभव्य पीछे हटते जाते हैं। उदाहरणार्थ- कई आदमी ग्रामान्तर ( दूसरे गांव ) को जा रहे थे । उनमें एक कायर - भीरू - था वह दो चोरों को देखकर तुरत ही पीछे हटा । दुसरा आदमी उसी स्थान पर खड़ा रहा । और तीसरा पुरुष आत्मशक्ति से चोर पर विजय प्राप्त करके इच्छित नगर में पहुंचा ।
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