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ज्ञान भी होता है । तत्वों का ज्ञान होने से स्व-पर का विवेक होता है, अर्थात् वह समझता है कि- मेरी आत्मा ज्ञान-दर्शन- चारित्र - वीर्यादि गुणों से युक्त है । और अन्य पदार्थ आत्मा से भिन्न हैं, जिन का व्यवहार जड - पुद्गलादि शब्दों में किया जाता है। संसार में जीतने दृश्य पदार्थ हैं, वे सब पौद्गलिक हैं । उस में कितनेक दृश्यगुण वाले होते हुए भी उनको चर्मचक्षुवाले जीव नहीं देख सकते हैं । दृष्टान्त के तौर पर - परमाणु आदि असल में दृश्य स्त्रभावी हैं, परन्तु दिखाई नहीं देते हैं । यदि ऐसा न होवे तो परमाणु के समूह से बने हुवे अवयव भी प्रत्यक्ष नहीं हो । जड़ के संबंध से आत्माने तद्रूपता को किसी अंश में प्राप्त किया है । उदाहरण के तौर पर सुवर्ण द्रव्य स्वच्छ होते हुवे भी मृत्ति का (मिट्टी) के संयोग से तद्रूप प्रतीत होता है । परन्तु सोने पर रही हुई मिट्टी रूपी मेल दूर होने पर अपने स्वरूप का भान आबाल वृद्ध पर्यन्त-समी को कराता है । उसी तरह आत्मा पर रहे हुए कर्म रूपी महामलीन मेल दूर होने से आत्मा परमात्मा की दशा का भोग करता है । वर्तमान समय में आत्मा स्फटिक रत्न की उपमा के योग्य है । अर्थात् स्फटिक रत्न के सम्मुख जिस रंग का फूल रक्खा जाता है । वैसा ही रंग स्फटिक
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