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ब्रह्मचर्य-अणुव्रत "कामकामी खलु अयं पुरिसे, से सोयई, झूरई, तप्पई, परितप्पई" कामार्थी मनुष्य शोक करता है, व्याकुल होता है, झूरता है, संतप्त होता है और परितप्त होता है-यह मानते हुए अणुव्रती पूर्णतया कामविजेता होनेकी अभिलाषा रक्खे। अनैतिक भोगविलासका त्याग कर संयमकी ओर अधिकाधिक अग्रसर हो।
इस सन्बन्धमें निम्नाङ्कित नियमोंका पालन अणुव्रतीके लिये अनिवार्य है :
१–वेश्या व पर-स्त्रीगमन न करना।
आर्य संस्कृतिमें ब्रह्मचर्यका सर्वोच्च स्थान है। प्राचीन ऋषि, महर्षि, निर्ग्रन्थोंने अपनी वाणीसे इसका महत्त्व सर्वसाधारणको समझाने में कोई कमी न रखी। सन्यास-धर्मके लिये तो पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन एक अनिवार्य व्रत ही बन गया, किन्तु समाजस्थ हरेक प्राणी ब्रह्मचारी हो सके, यह असंभव था इसीलिये 'स्वदारा-संतोष व्रत' का आविर्भाव हुआ । यही व्रत आगे चलकर धर्मके साथ-साथ नीति और समाजव्यवस्थाका अंग बना। अब भी भारतीय समाज-व्यवस्थाका मूल इसी मर्यादा पर अवस्थित है। यह भी किसीसे छिपा नहीं है कि भारतीय संस्कृतिमें पतिव्रत-धर्म और पत्नी-व्रतधर्मका कितना गौरवपूर्ण स्थान है । आज पाश्चात्य संस्कृतिमें इस दाम्पतिक व्यवस्था की उपेक्षा प्रारम्भ हुई है किन्तु उसका दुष्परिणाम भी अनेक प्रकारसे सामने आ ही रहा है। भारतवर्षको इस अन्ध-प्रवाहमें बहकर अपनी चरित्र-निधिको नष्ट नहीं कर देना है, आत्म-पतनका राही नहीं बनना है। इन दृष्टिकोणोंसे यह नियम अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है।
२-किसी प्रकारका अप्राकृतिक मैथुन न करना।
इस जघन्यतम क्रियाका प्रसार भी युवक, बच्चे और वृद्धों तकमें पाया जाता है। इस प्रक्रियासे मनुष्यके स्वास्थ्य, सौंदर्य, साहस, ओज
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