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अहिंसा - अणुव्रत
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है आज यदि सारा संसार मांसाहारका परित्याग कर दे तो पर्याप्त अन्न आयेगा कहाँ से ? किन्तु तथ्य यह है कि आज यदि मांस- परिहारका कोई आन्दोलन प्रारम्भ होता है और सफलताकी ओर ही निरन्तर बढ़ता जाता है तोभी सारे संसारका निरामिष भोजी होना शताब्दियों का कार्य होगा । इस दीर्घ कालमें आजका विज्ञानवादी मनुष्य अन्न समस्याको नहीं सुलझा सकेगा, यह नहीं सोचा जा सकता । करोड़ों मनुष्य आज निरामिष भोजी हैं, वे सब किसी एक दिन और एक क्षण में नहीं बने हैं। ज्यों-ज्यों बनते गये हैं त्यों-त्यों अन्नादिकी सुलभता भी बनती गई हैं । सारांश यही है कि मनुष्य अपनी अव्यावहारिक कल्पनासे ही व्यर्थ इस विषयको अव्यावहारिक बना देता है ।
आज किसी नियम व अन्य विषयकी उपयोगिता आंकनेका भी यही एक निर्धारित-सा क्रम हो चुका है कि वह विश्वव्यापी हो सकता है या नहीं ? देखना तो यह है कि सम्भव माने गये नियम और अन्य विषयों में से भी विश्वव्यापी कितने होते हैं ? यदि कोई आदर्श सीमित क्षेत्र में ही व्याप्त होना सम्भव है तब भी उसके प्रसारकी उपेक्षा क्यों की जाय ? जितने व्यक्ति उसे अपने जीवनमें उतारेंगे, उतनोंका उत्थान होगा, इसमें कौनसी बुराई है !
एक भी व्यक्ति यदि आमिष भोजसे निरामिषताकी ओर बढ़ता है तो बहुत हुआ । अहिंसावादीको तो उसके लिये प्रयत्नशील होना ही चाहिये क्योंकि वहाँ हिंसाका ह्रास और अहिंसाका विकास है। अहिंसावादियोंका इस विषय में उपेक्षात्मक निर्णय ऐसा लगता है कि मानो सारा संसार सहस्त्रों वर्षोंके प्रयत्नोंसे भी अहिंसावादी हुआ ही नहीं, आगे उतने ही कालमें वह हो सके, ऐसी सम्भावना नहीं है इसलिये अहिंसाका प्रसार अव्यावहारिक है ।
अतः आवश्यक है कि अहिंसावादी इस विषयमें सुसंगठित रूपसे कोई अहिंसात्मक प्रयत्न प्रारम्भ करें। मांसाहार हिंसा - प्रसारका अनन्य साधन है, वह इस अर्थ में कि निरामिषभोजीके हृदय में हिंसासे स्वतः
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