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अणुव्रत - दृष्टि
कोई सक्रिय कदम नहीं उठाया । और आजके अन्य अहिंसावादी भी अधिकांशतः इस विषय में मौन हैं। और उस मौनका एक मात्र वही कारण हो सकता है । अस्तु ; हमें देखना तो यह चाहिए कि क्या संसार में कभी एक भी ऐसा आन्दोलन हुआ है जिसके सफल होनेमें बड़ी-बड़ी बाधायें न रही हों । किन्तु जब-जब मनुष्यने इन बाधाओं के निराकरण के विषय में सोचा, प्रयत्न किया तब-तब उसे समाधान मिला है । इतिहास कहता है कि मनुष्य प्रारम्भिक दशामें मांसाहारी ही था, ज्यों २ वह विकासकी ओर अग्रसर हुआ, उसने खेती करना सीखा, अन्न पकाना सीखा और अन्न खाना सीखा । परिणामतः सारा संसार अन्नाहारी है, करोड़ों मनुष्य तो केवल अन्नाहारी हैं । जब मनुष्य मांससे अन्नाहारकी ओर आया है निसन्देह आजके निरामिष भोजी अपेक्षाकृत मांसाहारियोंसे अधिक विकासकी अवस्था में हैं । जब मनुष्यका ध्येय मांसाहारकी दिशा से मुड़कर निरामिषताकी दिशा में आज से महत्रों वर्ष पूर्व ही हो चुका था तब आज फिर अहिंसावादियोंको मांसाहारका विरोध करने में संकोच और हिचकिचाहट क्यों ?
आजके विचारक ज्यों इस विषय में उपेक्षाको प्रोत्साहन देते हैं, सहस्रों वर्ष पूर्वके विचारक भी इसी समस्या से घबराकर यदि मांसाहार पर ही डटे रहते तो मनुष्यकी अन्न- निष्पादन शक्तिका कुछ भी विकास न हुआ होता और शत-प्रतिशत मनुष्य केवल मांसाहारी ही होते, वे अन्नका नाम ही न जानते ।
आवश्यकता आविष्कारकी जननी है । ज्यों २ मनुष्य अन्नका आदी हुआ त्यों २ अन्नका उत्पादन वृद्धिगत हुआ । इतिहास में विश्वास रखनेवाले इसमें दो मत नहीं हो सकते । आजके वैज्ञानिक साधनों के युग में तो यह सोचना यथार्थतासे बहुत परे होता है कि मांसाहारका परित्याग कर देनेके पश्चात् मनुष्यके जीनेका कोई सहारा नहीं रहेगा ।
इस दिशा में मनुष्यको असम्भवताके दर्शन इसलिये होते हैं कि वह अपनी कल्पनाको एकदम अन्तिम छोर तक ले जाता है । वह सोचता
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