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अणुव्रत-दृष्टि प्रति भी प्रति-प्रहार न किया जाय किन्तु अणुव्रती एक साधक है, उसके जीवनमें अहिंसाकी अपूर्णता है ।
हिंसा तीन प्रकारकी होती है : आरम्भजा, विरोधजा और संकल्पजा।आरम्भजा जो कृषि, वाणिज्य, गृह-निर्माण आदि प्रवृत्तियोंमें होती है। विरोधजा जो शत्रु या प्रतिपक्षीके प्रतिकार स्वरूपकी जाती है। संकल्पजा जो विधि और लक्ष्यपूर्वक आक्रान्ता होकर की जाती है। उक्त नियम संकल्पजा हिंसाका ही निषेध है, वह भी द्वीन्द्रियसे मनुष्य तक।
नियमकी स्पष्ट उपयोगिता यह है कि अणुव्रती अकारण किसी जंगम प्राणीका बध नहीं कर सकता, वह हर प्रकारकी अनावश्यक हिंसासे बच जाता है। __ मूल नियममें संकल्प, लक्ष्य और विधि ये तीन शब्द जोड़ देनेका तात्पर्य है,। संकल्पजा हिंसामें, मैं हिंसा करूं, ऐसा संकल्पजा होता है, अमुक प्रणीकी हत्या करूँ, ऐसा लक्ष्य होता है, अमुक प्रकारसे हिंसा करूँ ऐसा विधिका निरधारण होता है। ___ यद्यपि विरोधजा हिंसामें भी ये तीनों प्रकार होते हैं तथापि निरपराधी शब्द जोड़ देनेसे उक्त नियमसे उसका सम्बन्ध अलग हो जाता है। इसी तरह संकल्प, लक्ष्य और विधि, इन शब्दोंके प्रयोगसे आरम्भजा हिंसा इस नियमकी मर्यादासे दूर रह जाती है। आगेके नियम आरम्भजा आदि हिंसाकी मर्यादा बांधेगे। यह तो असम्भव है कि गृहस्थ मनुष्य आरम्भजा विरोधजा हिंसासे पूर्णतः बच सके। किन्तु वहाँ भी अनावश्यक और आवश्यकका विवेक अपेक्षित है। आगे के नियम, विशेषतः उक्त दो हिंसायें जहांतक अनावश्यक और अनैतिक हैं निरोध करते हैं।
२-किसी व्यक्ति विशेष या दल विशेषकी हत्या करने का उद्देश्य रखनेवाले गुट, दल, या संस्थाका सदस्य न होना एवं उनके कार्यों में भाग न लेना।
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