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अहिंसा-अणुव्रत आजके सभ्य समाजमें हत्या एक पाशविक वृत्ति मानी जा चुकी है फिर भी मानव समाजसे अभी तक इसका आत्यन्तिक लोप नहीं हुआ है। निकट भृतके इतिहासमें भी इस भूवलय पर अनेकों हत्यापूर्ण घटनाएं घट चुकी हैं, महात्मा गान्धीकी मृत्यु-घटना इस विषयका ज्वलन्त उदाहरण है। इस प्रकारकी नृशंस प्रवृत्तियोंसे इस नियमके अनुसार अणुव्रतीको सर्वथा परे रहना चाहिए। वह कोई भी कायिक और वाचिक योग तत्सम्बन्धी षड्यंत्रोंमें नहीं दे सकेगा। ऐसे तो 'अणुव्रती-संघ' के अन्यान्य नियमोंकी उत्कृष्टताके कारण अणुव्रतीका आदर्श स्वतः ऐसा हो जाता है कि वह हत्या जैसे निन्दनीय कार्यमें प्रवृत्त हो ही नहीं सकता तथापि सामान्य और विशेष सभी नियमों का उल्लेख आवश्यक है, ऐसा मानकर ही नियमावलीमें इसे स्वतंत्र नियमका स्थान दिया गया है। ऐसा आवश्यक भी था, दो चार विशेष नियमों के भाव, व्याख्या और दृष्टिकोणमें वैसे तो अन्य सारे सामान्य नियम अन्तगर्भित किये जा सकते हैं, किन्तु ऐसे सर्वजनोपयोगी नियमोंमें "एकाक्षर लाघनेन पुत्र जन्मोत्सव" के आदर्शको उपस्थित कर सर्व सर्वसाधारणको तर्कशास्त्रका अभ्यास नहीं कराना था, जो सबके लिये असम्भव भी है। नियमोंकी रचनामें सरलता और स्पष्टताका ध्यान विशेष आवश्यक था। अतः उसे आदिसे अन्ततक निभाना अनिवार्य हुआ। दूसरा यह भी एक अनुपेक्ष्य दृष्टिकोण नियमोंकीरच नाके सम्बन्ध में रहा है। पृथक् २ बुराइयोंके निषेधक यथोचित पृथक् २ नियम ही हों ताकि आबाल वृद्ध उन बुराइयोंको स्पष्ट समझ सकें और एक-एकको छोड़नेके लिये प्रयत्नशील रह सकें। अतः अथसे इति तकके नियमोंमें और भी जहाँ-जहाँ इस प्रकारके नियम हैं वे संख्यापूरक न होकर आवश्यकता पूर्वक ही हैं। ___उदाहरणार्थ यह नियम नं० २, भावार्थ और शब्दार्थ तया पहले नियम में समाया जा सकता है तथापि मानव-हत्या जैसी बुराईकी ओर स्पष्ट इङ्गित हो, जन २ में इस बुराईके प्रति घृणा उत्पन्न हो इसलिये इसे स्वतंत्र
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