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अणुव्रत
१-अहिंसा-अणुव्रत
"सव्वेसिं जीवियं पियं"-प्राणीमात्र को जीवन प्रिय है। गृहस्थ अपने जीवन-यापनके लिये जो नाना हिंसा करते हैं, वह उनकी दुर्बलता, अशक्यता है। अहिंसा ही धर्म है, हिंसा नहीं, चाहे वह अनिवार्य कोटि की ही क्यों न हो। अहिंसा ही जीवन का सिद्धान्त होना चाहिए । मैं अधिक-से-अधिक अहिंसक बनूं-इस भावनाको लिए अणुव्रती स्थूलसूक्ष्म सब हिंसा से बचने के लिये प्रतिक्षण सचेष्ट रहे ।
इस सम्बन्ध में निम्नाङ्कित नियमों का पालन अणुव्रती के लिए अनिवार्य है।
१-चलने फिरनेवाले निरापराध प्राणी का संकल्प, लक्ष्य या विधिपूर्वक घात न करना।
भारतीय विचार-धाराके अनुसार मुख्यतः दो प्रकारके प्राणी माने गये हैं-स्थावर और जंगम। स्थावर जिनके एक इन्द्रिय होती है, स्वयं चल फिर नहीं सकते, पृथ्वी, जल, बनस्पति आदि। दो इन्द्रियसे लेकर पांच इन्द्रिय तकके प्राणी जंगम हैं, ये स्वयं गतिशील होते हैं। द्वीन्द्रिय-लट, सीप, कृमि आदि । त्रीन्द्रिय---चींटी, मकोड़ा, जू आदि । चतुरीन्द्रिय-मक्खी, मच्छर, टिड्डी, बिच्छू आदि। पंचेन्द्रिय- गाय, भंस, मछली, सर्प, मोर, कबूतर, मनुष्य आदि। स्थावर प्राणियोंकी अनावश्यक हिंसासे बचते रहना अणुव्रतीका ध्येय होगा। यह इस पुस्तक की पृष्ठ-भूमिमें बताया जा चुका है। यह नियम चलने-फिरने वाले निरपराध प्राणीकी संकल्प, लक्ष्य और विधिपूर्वककी जानेवाली हिंसाका निरोध करता है । अहिंसाका पूर्ण रूप तो यह है कि अपराधीके
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