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अणुव्रत-दृष्टि जाना कुछ लोगोंके लिये अखरने जैसा होता है, वे संघकी सार्वजनिकता में अविश्वास करने लगते हैं। किन्तु यह अविश्वास वस्तु-स्थिति तक नहीं पहुंचने का है। यह ठीक है कि तेरापंथ एक स्वतंत्र धर्म सम्प्रदाय है, वह पूर्णतः जैन दर्शन पर आधारित है, पर इससे क्या ? 'अणुव्रती-संघ' का एक भी नियम किसी धर्म विशेष के लक्ष्यको लेकर नहीं बनाया गया है, वे पूर्ण सार्वजनिक हैं, सबधर्मोंके हैं। इसके अतिरिक्त विधान का भी ऐसा कोई नियम नहीं जिसके अनुसार अणुव्रती होने के नाते किसी व्यक्ति को तेरापन्थ धर्मकी ओर बलात् झुकना पड़ता हो । 'अणुव्रती-संघ के संस्थापक आचार्य श्री तुलसी इस विषय में कितने स्पष्ट हैं, यह एक प्रश्नोत्तर से पूर्णतः सिद्ध हो जाता है। देहली में एक सार्वजनिक आयोजनमें जब आचार्य वरने 'अणुव्रती-संघ के विषयमें प्रकाश डाला, जब कि सहस्रों व्यक्ति उपस्थित थे, एक व्यक्ति ने प्रश्न किया'अणुव्रती होनेवालेको क्या आपको गुरु मान लेना होगा?' आचार्य वरने कहा-'यह तो प्रश्न ही उठते जैसा नहीं है क्योंकि ऐसा कोई नियम अणुव्रती के लिये नहीं है जो उसे तेरापन्थ के लिये या मुझे गुरु मान लेने के लिये बाध्य करता हो।' प्रश्नकर्ता ने पुनः कहा - 'क्या यह अनिवार्य नहीं होगा कि प्रत्येक अणुव्रती आपको नमस्कार करे ?' आचार्यवरने कहा-'मैं नमस्कार करवानेका भूखा नहीं हूँ, यह अणुव्रती की इच्छा पर निर्भर है कि वह मुझे प्रणाम करे या नहीं। अणुव्रती के लिये अणुव्रतों के पालन करनेका विधान है, मुझे प्रणाम करनेका नहीं।' अस्तु ।
सोचने की बात तो यह है कि लोगोंकी इस आपत्ति का अर्थ ही क्या है कि एक सार्वजनिक संघ के अधिनेता एक धर्म विशेष के आचार्य ही हों क्यों ?
किसी भी धर्म को मानना, उसमें सन्न्यस्त होना या आचार्य होना किसी व्यक्ति का वैयक्तिक स्वरूप होता है, उसकी अध्यक्षता से सार्वजनिक संघ या संस्था की गतिविधिमें बाधा हो ही क्या सकती है ?
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