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विधान
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लगता है । अन्य और भी बहुत से व्यक्तियों के विविध रूपसे एक आध ऐसी बाधा मिल ही जाती है । आचार्यवरने नियम और अनुशासन की दृढ़ता का ध्यान रखते हुए उन्हें प्रवेश देनेका यह सुन्दर मार्ग अपनाया है जो ऊपर धारामें सुस्पष्ट है । इससे शिथिल व्यक्ति संघ में नहीं आ सकते और जो योग्य हैं वे किसी साधारणतम आपत्ति से संघ में आने से वंचित नहीं रह जाते ।
यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक होगा कि किसी एक भी मौलिक नियम को बाद नहीं दिया जा सकता । कोई व्यक्ति कहे, मैं केवल चोरबाजार के नियम को बाद देना चाहता हूं, यह अवैधानिक होगा । मौलिक- अमौलिक सम्बन्धी निर्णय 'संघ- प्रवर्त्तक' ही करेंगे ।
१४ – 'संघ- प्रवर्त्तक' तेरापंथ सम्प्रदाय के वर्तमान आचार्य रहेंगे। इस धारासे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह संगठन एक तंत्रात्मक प्रणाली पर आधारित है । आज का लोक-प्रवाह जनतंत्र के अनुकूल है । पर साथ २ आजके विचारक यह भी सोचनेको बाध्य होते हैं कि एकतंत्र के कतिपय कटु अनुभवों के पश्चात् जिस आदर्शपूर्ण जनतंत्र की कल्पना की गई थी वह आदर्श केवल कल्पना और सिद्धांत तक ही सीमित रहा । व्यावहारिकता में तो जनतंत्र का स्वरूप विकृत एकतंत्र से भी अधिक भयानक नजर आ रहा है । अस्तु, हमें एकतंत्र और जनतंत्र की लम्बी चर्चा में नहीं जाना है । यहाँ तो केवल यह बता देना ही प्रर्याप्त होगा कि जहाँ चरित्र-निर्माण का प्रश्न है, अणुव्रतियों का निरीक्षक, निर्देशक व संचालक कोई महात्रती अधिनेता हो, यही आवश्यक समझा गया । वह महाव्रती भी कुशल अनुशासक हो, ऐसी स्थितिमें सर्वतोधिक सुन्दर यही माना गया । संघ-संस्थापक आचार्य श्री तुलसी तो वर्त - मान 'संघ - प्रवर्तक' हैं ही, भविष्य के लिये भी यही विधान रक्खा जाय कि उनके उत्तरवर्ती तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य ही, संघ का प्रवर्त्तन करें । इस प्रकार 'अणुव्रती - संघ' की कड़ी तेरापंथी साधु-संघ से हमेशा के लिये जुड़ जाती है । एक धर्म विशेष के साथ 'अणुव्रती - संघ' काड़जु
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