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अणुव्रत-दृष्टि स्वयं जांच करेंगे । त्रुटि देखने वाला इतना कर देने मात्र से कर्तव्य मुक्त होगा। बहुधा देखा जाता है कि अधिकतर लोग न तो त्रुटि करनेवाले को सावधान करते हैं और न किसी ऐसे व्यक्ति को उससे अवगत कराते हैं जो त्रुटि का समुचित प्रतिकार कर सकता हो । वे तो केवल सर्वसाधारण में उसका उड़ाह करते हैं। इस प्रवृत्तिसे बहुत सी बुराइयां पैदा होती हैं पर गुण एक भी पैदा नहीं होता। उक्त धारा अणुव्रतियों के पारस्परिक व्यवहार में एक नई परम्परा शुरू करती है। यदि सर्वसाधारण जनता में भी इसका प्रसार हुआ तो सम्भवतः बहुत सी बुराइयां दूर हो सकेंगी।
8-प्रत्येक 'अणुव्रती' संघ के प्रति सद्भावना व निष्ठा रखेगा।
किसी भी संगठन के शिथिल होने के कारणों में संगठन के प्रति सदस्यों की पूर्ण निष्ठा का न होना भी एक प्रमुख कारण है। सदस्य भी जब निष्ठा परायण न हों तब अन्य लोगों के संगठन की ओर आकर्षित होने की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। ऐसे तो धारा नं० ८ में जो तत्त्व प्रतिपादित किया गया है, अंशतः धारा नं०६ में भी वही प्रतिपादित किया गया है ; पर ऐसा आवश्यक था। धारा नं० ८ अणुव्रती के प्रति अणुव्रती का क्या कर्तव्य है ; इस ओर संकेत करती है। धारा नं०६ संघ के प्रति अणुव्रती का क्या कर्त्तव्य है, इस बात का दिग्दर्शन कराती है। ___ इस धारा का यह तात्पर्य भी नहीं कि संघकी गतिविधि के विषय में अणुव्रती को कुछ भी आलोचन-प्रत्यालोचन का अधिकार नहीं । विधिरूप से की जाने वाली उचित आलोचना के लिए प्रत्येक अणुव्रती स्वतन्त्र है। आलोचना कहाँ और किस रूप में होनी चाहिए यह भी एक विज्ञान है, जो अंशतः धारा नं० ८ में बताया जा चुका है। विधिपूर्वक की जाने वाली आलोचना आलोच्य वस्तु को बल देती है और अविधिपूर्वक की जानेवाली आलोचना आलोच्य वस्तु को और भी अधिक आलोच्य बनाने में सहायक होती है। संगठन को शृंखलित
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