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बिधान रखने में यह धारा अवश्य उपयोगी सिद्ध होगी, ऐसा विश्वास किया जा सकता है।
२०-अणुव्रती को प्रत्येक पक्ष में कम से कम एक बार ली हुई प्रतिज्ञाओं का स्मरण एवं लगे हुए दोषों के लिए आत्मपर्यालोचन कर आत्म-शुद्धि करनी होगी।
सत्य को सुरक्षित रखने के लिए अनेक नियम और मर्यादायें आवश्यक हैं। तथापि, अन्ततोगत्वा सारा सत्य आत्म-निर्भर है। ऐसे तो नियमों को यथोचित रूपसे समझ कर ही अणुव्रती बनने का विधान है, फिर भी इस धारा के अनुसार प्रति पक्ष में उनका संस्मरण आवश्यक होगा। नियमों में मानव दुर्बलता के कारण लगे हुए दोषों को यादकर उनका प्रायश्चित करना होगा। प्रायश्चित के दो प्रकार हैं-साधारण स्खलनाओं के लिए आत्मानुताप तथा भविष्य में न करने का संकल्प। विशेष त्रुटियों के लिये यथावसर ‘संघ-प्रवर्तक' को निवेदन कर प्रायश्चित ग्रहण करना होगा।
११–अणुव्रतियों में परस्पर कटु व्यवहार हो जाय तो १५ दिन की अवधि में क्षमा याचना कर लें। यदि यह शक्य न हो तो यथासम्भव 'संघ-पवर्तक' को निवेदन करें। __ आवश्यक तो यह है कि अणुव्रती की ओर से किसी के साथ अशिष्ट और कटु व्यवहार न हो, वह तो अपने हर कार्य में क्षमा व सहनशीलता का ही परिचय दे। यह तो और भी बुरा होता है, यदि अणुव्रती किसी निरर्थक और तुच्छ विषय को लेकर परस्पर झगड़ें। उन्हें तो विश्व-बन्धुता और विश्व-मैत्री के आदर्श पर पहुंचना है । यह धारा बताती है कि उस आदर्श को अपने संघ तक तो अनिवार्यतः उपस्थित करें ही और सर्व-साधारण तक इस आदर्श को उपस्थित करने में वे सचेष्ट और जागरूक रहे।
क्षमा-याचना कलहों की उपशान्ति का अमोघ मंत्र है। क्षमा मांगने व मंगवाने का व्यवहार सर्वसाधारण जनता में भी साधारणतः
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