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विधान कोई अणुव्रती किसी विशेष स्थिति से त्याग के मार्ग पर नहीं आ सकता तो उसे अपनी स्थिति 'संघ-प्रवर्तक' के समक्ष रख देनी होगी।
किसी भी व्यक्ति को आजीवन अणुव्रती बने रहने की भावना से ही अपना नाम साधना में देना चाहिए।
त्याग भावनाओं का उत्कृष्टतम संकल्प है। कुछ व्यक्ति यह तर्क उपस्थित किया करते हैं कि हम तो बुरे कामों से बचने का विचार रखते हैं, त्याग को हम कुछ नहीं समझते। ऐसे व्यक्तियों से कहना चाहिए, आप बुराइयों से बचने का कच्चा संकल्प रखते हैं, यदि पक्का संकल्प रखते हैं तो त्याग करने से हिचकिचाहट क्यों ? उत्कृष्टतम संकल्प ही जब त्याग है तो त्याग शब्द से अकारण परहेज क्यों ?
८-कोई अणव्रती अन्य अणुव्रती को नियम व अनुशासन भंग करते देखकर ( सद्भाव-पूर्वक) या तो उसी व्यक्ति को सचेष्ट होने के लिए कहेगा या 'संघ-प्रवर्तक' से निवेदन करेगा। दूसरों में प्रचार नहीं करेगा। ____ आज के मानव-जीवन में सबसे बुरी बात है दूसरों की बुराइयों का प्रचार करना। आज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के, एक समाज दूसरे समाज के और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के अवगुणों का प्रचार करने में संलग्न है। इस कारणसे ही किस तरह राग, द्वष, कलह, ईर्ष्या आदि का उद्भव होता है, यह सर्वविदित है।
प्रश्न यह रहता है कि यदि बुराइयों का उल्लेख न किया जाय तो वे मनुष्यसे दूर ही कैसे हो सकती हैं । किसी व्यक्ति की बुराई को जनतामें प्रसारित किया जाये, यह उसे मिटाने का सही हल नहीं है। इससे तो प्रत्युत प्रतिद्वन्द्विता, असहिष्णुता, गुणोपेक्षा और दोष-निरीक्षण की वृत्ति बढ़ती है। संगठन को सुरक्षित रखते हुए बुराइयों को दूर करने का सरलतम मार्ग यही है कि प्रथमतः उस व्यक्ति को सावधान किया जाये, यदि वह स्वयं अपनी त्रुटिको दूर करने में समर्थ न हो सकता हो, तब उसकी चर्चा 'संघ-प्रवर्तक' के समक्ष की जाये। इस विषय में वे
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