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आलोचनाके पथपर अणुव्रती - संघ
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दूसरी जगह देख भी कैसे सकते हैं ? भारतकी सोचनीय दशा हमारी आँखों से ओझल हो नहीं सकती । सामुदायिक या सामाजिक भावना का लोप हो गया है। खाने-पीनेकी कोई भी चीज शुद्ध नहीं मिलती । क्रांग्रेसके अध्यक्ष डा० पट्टाभिका कहना है कि हमारे देशमें अनाजकी जितनी कमी बताई जाती है, वह जाली राशन कार्डोंके रद्द हो जानेसे ही दूर हो जायेगी । तेल और घी में न मालूम किन २ पदार्थोंकी मिलावट कर गरीब और निर्बल जनताके स्वास्थ्यसे राक्षसी खिलवाड़ किया जा रहा है। जीरेके स्थानपर घास और बजरी दी जारही है। बाहर के देशों में हमारा सम्मान गिर गया है। असली रूईकी जगह गीली रुई, मूंगफलीकी बोरियोंमें कंकर तथा काजू में पत्थर मिलाकर हमने नैतिक पतनकी सीमाको पारकर दिया है, बिना टिकट यात्रा कर हम अपने ही राष्ट्रको लाखों रुपये का नुकशान पहुंचा रहे हैं। ऊपरकी आमदनी और रिश्वतखोरीने इतना व्यापक रूप धारणकर लिया है कि आज कोई भी व्यक्ति बड़े २ नेताओं जौर राजकर्मचारियोंको वदनामकर जनता में यह विश्वास कर सकता है कि हमारे परखे हुए नेता भी इन प्रलोभनोंके जाल में फँसे हुए हैं । कभी जमाना था जब कुछ लोग युद्ध और प्रेमकी घटनाओं में ही झूठ और कूटनीतिको क्षम्य समझते थे । अब व्यापार और बेईमानी आपसमें दूध पानीकी भाँति घुल-मिल गई हैं । उनका पृथक्करण कवियों द्वारा कल्पित कोई हंस भी कर सके या नहीं, इसमें
देह है। जबतक राज्य की सत्ता अंग्रेजोंके हाथमें थी, हम अपनी बुराइयोंका सारा जिम्मा उनके माथे मढ़कर संतोषकर लेते थे। अपने ही दिलों में छिपी हुई आसुरी प्रवृतिकी ओर हमारा ध्यान ही न जाता था। अब हमारे राष्ट्रकी बागडोर हमारे ही हाथोंमें है । भीतर बैठी हुई आसुरी प्रवृति सहसा नाच करने लग गई है, और कोई भी उस ओरसे अपनी आँखें मूंद नहीं सकता ।
“ऐसी अवस्थामें यह आवश्यक था कि कुछ ऐसे नेता और प्रभाव - शाली व्यक्ति आगे आयें जो इन बुराइयोंको दूरकर जन-साधारणको
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