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'श्रमण ' जून १६५० सम्पादकीय
“मईके पहले सप्ताह में समाचार पत्रों में एक उत्साह वर्धक और आशाजनक समाचार प्रकाशित हुआ था । हमें यह पढ़कर बहुत खुशी हुई कि भारतकी राजधानी दिल्लीमें श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सम्प्रदाय के वर्त्तमान आचार्य श्रीतुलसीगणीजीके नेतृत्वमें अणुव्रती संघका एक अधिवेशन हुआ । उसमें ६०० से भी अधिक व्यापारियोंने अपने धर्मगुरु के सामने यह प्रतिज्ञा की कि वे चोरबाजारी नहीं करेंगे, रिश्वत नहीं लेंगे, जाली राशन कार्ड नहीं बनायेंगे। इसके अतिरिक्त झूठे विज्ञापन छपवाने, बिना टिकट रेल-यात्रा करने, जुवा खेलने, आदमी द्वारा चलाये गये रिक्शेपर बैठने, जाली हस्ताक्षर करने, व्यापार में बेइमानी करने, तथा ४५ वर्षकी आयुके बाद विवाह करने आदिका भी त्याग किया गया। इन व्यापारियों में ज्यादातर संख्या करोड़पति और लखपति व्यापारियोंकी ही थी । वे इस बातको भली-भांति समझते थे कि उनमें से बहुतसे व्यक्तियोंने इन दिनों व्यापार कौशलके नामपर क्या-क्या न करने योग्य काम किये हैं । उनकी अन्तरात्मा नैतिक पतनसे तड़प उठी और आत्मामें विद्यमान स्वाभाविक सट्टतिकी भावना जागृत हुई । इसके साथ-साथ उन्हें कंचन - कामिनीके स्पर्श तकके त्यागी और परमार्थ स्वार्थ समनेवाले एक जैनाचार्यकी प्रेरणा पानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। नतीजा हमारे सामने है ।
अणुव्रत - दृष्टि
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“आज दुनियाके प्रायः सभी देशोंमें नैतिक आदर्शोंको तिलांजलि दे दी गई है। लोभ, रिश्वत, धोखेबाजी, स्वार्थ साधना, अविश्वास, एक दूसरेको लूटने की भावना, खोटे और झूठे नापतौल और लगभग हरेक चीज में मिलावट आदि बुराइयोंका सब जगह बोल-बाला है । दूसरे देशों में परिस्थितिका सच्चा रूप क्या है, इस बारे में न तो हम अधिकार पूर्वक कह सकते हैं और न अपनी वर्तमान दशाको देखते हुए इस बातका हक ही रखते हैं । जिन बुराइयों और अपराधोंके कारण हमारा अपना सर ही लज्जावश झुका हुआ है उन्हें हम अपना मस्तक ऊँचा करके
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